ना इधर के रहे ना उधर के रहे ( गोरा-काला ) डॉ लोक सेतिया
हर दिन ख़ास होता है भले कसी दिन जश्न मनाते हैं किसी दिन अफ़सोस जतलाते हैं । 8 नवंबर का भी अपना महत्व है शायर की भाषा में कह सकते हैं " ना ख़ुदा ही मिला ना विसाल ए सनम , ना इधर के रहे ना उधर के रहे "। लेकिन जिनको बस कुछ कर दिखाना होता है उनको ऐसी बातों से रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता खाया पीया कुछ नहीं गलास तोडा बारह आना की बात है । लेकिन सच कहें तो किसी ने खूब जमकर खाया ही नहीं यारों को खिलाया भी है उनके दरबार में हर दिन दावत होती है । इक पंजाबन कहती है काला शाह काला मेरा काला हे सरदार गोरियां नूं दफ़ा करो । शहंशाह को भी तमाम चाहने वाले इसी तरह से दिल से चाहते हैं कोई दाग़ दिखाई नहीं देता जब कभी कालिख़ भी कोयले की कोठड़ी से लग जाए तो नज़र से बचने का काला टीका समझते हैं । राजनेताओं से देश समाज को क्या मिलता है इस विषय पर इतिहासकार चुप्पी साधे रहते हैं क्योंकि ये माजरा थोड़ा अलग है । जिस राजनेता ने आपात्काल घोषित किया उनको सिर्फ बदनामी मिली मगर उसी का नतीजा कितने विपक्षी दलों के राजनेता सत्तासुख भोग रहे हैं । ऐसे भी बहुत हैं जो पकड़े जाने के डर से भागे छुपते फिरते थे अब शेर की तरह दहाड़ते हैं । जनता की और बात है कोई भी शासक हो उसको कुछ नहीं हासिल होता वोट देकर हासिल बेबसी लाचारी होती है आज़ादी क्या है इक पहेली है जिस का अभी हल किसी को नहीं समझ आया है । सरकारों से संसद से विधानसभाओं से क्या क्या और कैसे कैसे कानून बनाये गये हैं लेकिन मर्ज़ बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की जैसी हालत है ।
सिर्फ काला धन ही नहीं बढ़ता गया बल्कि गरीबी भूख बेरोज़गारी शोषण अन्याय अत्याचार सभी खूब फलते फूलते रहते हैं अपराधी हंसते हैं जब बड़ी से बड़ी अदालत कहती है हमारा बुलडोज़र चला तो मुश्किल होगी । बच्चो संभल जाओ हैडमास्टर जी छड़ी दिखा रहे हैं इक समस्या है छड़ी से उनकी कलाई को मोच आने की चिंता रहती है । जिनको संविधान मंज़ूर नहीं कोई उनसे नहीं पूछता कि आपका सारा वजूद उसी के आधार पर है अगर कोई पहले यही सोचता तो आपका क्या होता , तेरा क्या होगा कालिया सरकार गब्बर सिंह की तरह काला धन से पूछ रही है । मैंने आपकी तिजोरी भरी है रिज़र्व बैंक से आंकड़े आये हैं अब सभी लोग दूध के नहाये हैं आपकी अनुकंपा है अपराधी गुंडे जीते हैं सांसद विधानसभाओं की शोभा बढ़ाये हैं माननीय और आदरणीय कहलाये हैं । सभी अपने पिया मन भाये हैं अदालत से गुनहगार भी शासक से कलीन चिट लाये हैं और सभी शरीफ़ लोग देख कर घबराये हैं लौट कर बुद्धू घर आये हैं । हम चांद की सैर कर ज़मीन पर वापस आये हैं कांटों के गुलशन हर जगह लहलहाये हैं उनके लिए हमने कालीन बिछाये थे हमारे लिए जिन्होंने राहों में कांटे ही कांटे बिछाये हैं । सत्ता ने अजब दस्तूर बनाये हैं धूप वाले साये हैं ये कैसे पेड़ लगाये हैं । काला धन बढ़ गया है विदेशी बैंक से राजनैतिक दलों का सबका ख़ज़ाना भर गया है । काला धन कितना था कितना सफेद कोई हिसाब नहीं लगाया गया आज तक , लेकिन जब सरकार ने उनका भेदभाव मिटाने को दोनों को इक साथ मिला दिया तब काला और सफेद रंग मिलकर जो नया रंग बना । साथ साथ मिलाने से काला काला नहीं रहता सफेद सफेद नहीं रहता उनके मिलन से ग्रे रंग बन जाता है अब कोई भी पूरी तरह से खराब नहीं न ही कोई पूरी तरह से अच्छा सब कुछ भले कुछ बुरे बन गये हैं । नोटेबंदी ने कमाल कर दिया है हुआ कुछ भी नहीं बस इक धमाल कर दिया है ।
अंत में इक हास्य कविता अच्छे दिन आने की पढ़ना लाज़मी है ।
अब अच्छे दिन आये हैं ( हास्य-व्यंग्य कविता )
सुन लो बहरो , देखो सारे अंधो , हम अच्छे दिन लाये हैंतिगनी का नाच नचाने को हमने , लंगड़े सभी बनाये हैं
हाल सब का इक जैसा होगा , काले भी गोरे बन जायेंगे
अपने रंग में रंगना सब को , अपनी पाउडर बिंदी लाये हैं ।
मुर्दों की अब बनेगी बस्ती , ऐसी योजना बनाई है हमने
होगी नहीं लाशों की गिनती , क़ातिल की होती रुसवाई है ।
अपने दल की टिकेट देकर , जितने अपराधी खड़े किये हैं
माननीय बन शरीफ कहलायें , इंकलाब क्या कैसा लाये हैं ।
सुन लो बहरो , देखो सारे अंधो , हम अच्छे दिन लाये हैं ।
सब इश्तिहार हमारे देखो तुम , झूठे हैं या सच्चे हैं हम
हम सब छप्पन इंच के हैं अब , बाकी तो अभी बच्चे हैं
मत देखो जो कुछ भी बुरा है , तुम गांधी जी के बंदर हो
जो सत्ता कहती सच वही है , सच की परिभाषा बनाये हैं ।
सुन लो बहरो , देखो सारे अंधो , हम अच्छे दिन लाये हैं ।
अपने रंग में रंगना सब को , अपनी पाउडर बिंदी लाये हैं ।
मुर्दों की अब बनेगी बस्ती , ऐसी योजना बनाई है हमने
होगी नहीं लाशों की गिनती , क़ातिल की होती रुसवाई है ।
अपने दल की टिकेट देकर , जितने अपराधी खड़े किये हैं
माननीय बन शरीफ कहलायें , इंकलाब क्या कैसा लाये हैं ।
सुन लो बहरो , देखो सारे अंधो , हम अच्छे दिन लाये हैं ।
सब इश्तिहार हमारे देखो तुम , झूठे हैं या सच्चे हैं हम
हम सब छप्पन इंच के हैं अब , बाकी तो अभी बच्चे हैं
मत देखो जो कुछ भी बुरा है , तुम गांधी जी के बंदर हो
जो सत्ता कहती सच वही है , सच की परिभाषा बनाये हैं ।
सुन लो बहरो , देखो सारे अंधो , हम अच्छे दिन लाये हैं ।
1 टिप्पणी:
....आपात काल के कारण बहुतों ने सत्ता सुख भोगा👍👍...लँगड़े सभी बनाए हैं wahh
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