ज़हर हंस कर के पीना आ गया है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
ज़हर हंस कर के पीना आ गया है
रोज़ मर मर के जीना आ गया है ।
ज़ख़्म देने हैं जितने आप दे लो
हम को ज़ख़्मों को सीना आ गया है ।
जिस जगह भी कदम थक कर रुके हैं
बस वहीं घर का ज़ीना आ गया है ।
ज़िंदगी आख़िरी दम तक लड़ेगी
मौत को क्यों पसीना आ गया है ।
थी कभी सब शरीफ़ों की ये बस्ती
दौर अब जामो मीना आ गया है ।
दफ़्न जिसको किया था आपने ख़ुद
है खबर फिर कमीना आ गया है ।
साल ' तनहा ' नया आना था लेकिन
एक गुज़रा महीना आ गया है ।
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