जीवन-कथा लिखवाने का शौक ( खरी बात ) डॉ लोक सेतिया
इधर आजकल सोशल मीडिया पर तमाम लोगों की पिछली बातों और किस्सों की बातें पढ़ने को मिलती हैं । पता नहीं उनसे क्या हासिल होता है मुझे तो कोई सुनाता है तो सोचता हूं इन का महत्व क्या है क्या उनके जीवन से कुछ सबक सीख सकते हैं । किसी ने मुझसे पूछा क्या अगर मैं आपको अपने बारे में कुछ बताऊं तो आप मेरी जीवनी लिख सकते हैं । मैंने सीधा साफ़ जवाब दिया कि मैं ऐसा कुछ नहीं लिखता हूं मुझे जो वास्तविकता सामने दिखाई देती है अपने समाज की उसको लेकर लिखना होता है भले किसी को पसंद आए या नहीं भी आए । वहां बैठे अन्य लोगों से मुख़ातिब होकर कहने लगे की हमने ये ये कर लिया क्या इतना काफ़ी नहीं है , फिर मुझसे सवाल किया आपको क्या लगता है । मैंने वही कहा जो कभी मैंने सरिता पत्रिका के संपादक विश्वनाथ जी इक बात से समझा सीखा और अपनाया था , उनका कहना था कि आप पढ़े लिखे हैं किसी पद पर हैं या कोई कारोबार करते हैं अपना परिवार अपने बच्चे को लेकर कर्तव्य निभाते हैं तो कोई विशेष कार्य नहीं है बिना किसी पद शिक्षा के भी कितने लोग यही करते हैं । संतान तो पशु पक्षी जानवर भी पैदा कर लेते हैं घौंसले भी बना लेते हैं , पढ़ लिख कर साधन संपन्न सुविधाएं पाने का नाम सार्थक जीवन जीना नहीं होता है । आपको देश समाज से बहुत मिलता है आपको समाज को कुछ लौटाना भी चाहिए ये इक कर्तव्य है सामाजिक दायत्व है । अचानक यूं ही मैंने उनसे लोकनायक जयप्रकाश नारायण को लेकर पूछा तो उनको कोई जानकारी नहीं थी तब मैंने उनको सलाह दी उनको लेकर अवश्य पढ़ना , ऐसे भी लोग हुए हैं जिन्होंने कभी किसी भी पद को चाहा ही नहीं बल्कि कभी स्वीकार ही नहीं किया और जीवन भर देश समाज और लोकतंत्र की रक्षा करते रहे । बात चली थी अपने बच्चों की परवरिश की तो मुझे शायर अल्लामा इक़बाल की इक नज़्म याद आई जो उन्हने अपने पुत्र जावेद के नाम लिखी थी जब उनको लंदन से उसका भेजा पहला ख़त मिला था । आईए उस नज़्म को पढ़ते हैं समझते हैं ।
दयारे इश्क़ में अपना मुक़ाम पैदा कर , नया ज़माना नए सुब्ह - शाम पैदा कर ।
ख़ुदा अगर दिले - फ़ितरत - शनास दे तुझको , सुकूते लाल-ओ -गुल से कलाम पैदा कर ।
उठा न शीशा-गराने - फ़िरंग के एहसां , सिफाले हिन्द से मीना ओ जाम पैदा कर ।
मैं शाख़े - ताक हूं मेरी ग़ज़ल है मेरा समर , मिरे समर से मय - ए - लालफ़ाम पैदा कर ।
मिरा तरीक़ अमीरी नहीं फ़कीरी है , ख़ुदी न बेच गरीबी में नाम पैदा कर ।
कुछ बातें जो आपकी पहचान करवाती हैं वो आपका ओहदा नाम शोहरत नहीं आपका सभ्य व्यवहार और समाज में आपका आचरण तौर तरीका होता है । कोई किसी डॉक्टर से अपनी बिमारी की बात कहने आया हो या किसी अधिकारी के पास कोई समस्या लेकर , उनका फ़र्ज़ होता है सही ढंग से उनकी बात सुनना न कि उनके साथ असभ्य व्यवहार कर खुद को विशेष साबित करना आपकी ख़ासियत यही है जिस काम को नियुक्त हैं उसे करना न कि अपना रुतबा जतलाना रौब जमाना । अधिकांश ऊंचे पद पर बैठे लोग शिष्टाचार भूल जाते हैं उनको अपनी भाषा वाणी पर कोई अंकुश नहीं लगाना आता है उनको नहीं समझ होती कि हर व्यक्ति का अपना महत्व होता है और कोई बड़ा छोटा नहीं होना चाहिए । दुष्यंत कुमार ऐसे लोगों को लेकर कहते हैं :-
ज़िन्दगानी का कोई मक़सद नहीं है , एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है ।
हमारे देश की विडंबना है कि जिनको जनता की सेवा करनी है उनको लगता है जनता उनकी गुलाम है और वो खुद शासक हैं । और अक़्सर अधिकांश बड़े अधिकारी असंवेदनशील और अहंकारी होते हैं उनको कोई उनका कर्तव्य याद दिलाए तो उसकी कमियां निकलने और दोषी साबित करने लगते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि अपने दफ़्तर में उनकी मनमानी को कोई रोकने वाला नहीं है लेकिन कोई राजनेता या उन से बड़ा कोई अधिकारी आकर कुछ कहे तो सर झुकाए जीहज़ूरी को तैयार होते हैं तब कोई सही गलत कोई नियम कानून आड़े नहीं आता है । ऊपरवाले का आदेश है तो कुछ भी कैसे भी करने को तरीका ढूंढ लिया जाता है । बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर , पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर । अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात है कि हमारी आधुनिक शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था से सरकारी तंत्र में अच्छे राष्ट्रीय चरित्र का बेहद अभाव है धन दौलत मान सम्मान यदि अपने उचित ढंग से महनत और ईमानदारी से अर्जित नहीं किए और उनको पाने को अपनी अंतरात्मा अपने विवेक को ताक पर रख छोड़ा है तो आपने बड़ी कीमत चुकाई है अपने खुद के स्वाभिमान का त्याग कर कितना भी खज़ाना भर लिया वास्तव में आप मानसिक तौर पर दरिद्र हैं ।
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