सितंबर 01, 2023

किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते ( अफ़साना ) डॉ लोक सेतिया

किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते ( अफ़साना ) डॉ लोक सेतिया 

मुनीर नियाज़ी जी के अश्यार से बात शुरू करता हूं । शायर कहता है सवाल सारे गलत थे जवाब क्या देते । मुझे अपना अफ़साना सुनाना तो नहीं दुनिया ज़माने को फिर भी अक्सर ख़्याल आता है कोई पूछे तो बताएं क्या । कितनी ग़ज़ल कितने अल्फ़ाज़ ज़हन में चले आते हैं उन में खो जाता हूं सभी अपनी बातों को भुलाकर लगता है हर किसी को हर किसी की मन की बात समझ आये ये मुमकिन ही नहीं । यहां हर शख़्स वही देखता है जो उसको देखना है आत्ममुग्ध हैं सभी कहां फुर्सत किसी को कोई जाने समझे । कुछ भी नहीं मांगा कभी किसी से चाहा भी तो थोड़ा सा प्यार अपनापन जो नहीं मिला जीवन भर इक यही प्यास रही है । मेरे भीतर इक सागर है प्यार का किसी को प्यार मुहब्बत का सबक पढ़ना ही नहीं हर कोई नफरतों का जंगल अपने अंदर लिए ख़ुद भी आग में जलता है और सब को जलाकर राख करना चाहता है । ऐसे में किस किस को क्या बताऊं मैं कौन हूं और क्या हूं किधर से आया किस तरफ जाना है । कोई ठौर है न कोई ठिकाना है चार दिन का आबोदाना है इक नाता है जिसे निभाना है सब नया है कुछ है पास अभी बड़ा पुराना है । ख़ामोश हो जाता हूं तो लोग कोई और मतलब निकाल लेते हैं सवालात ख़त्म नहीं होते नये नये सवाल निकाल लेते हैं । मुझे शतरंज खेलना नहीं आया कभी सामने वाले खुद मेरी जगह खिलाड़ी बन कर मुझे हमेशा हराते हैं जब जैसा चाहे चाल निकाल लेते हैं । मैं बहता शीतल पानी और लोग तपती लू की तरह किसी अनदेखी आग की तरह तपिश लिए हुए हैं लाख कोशिश की उनकी गर्मी को ठंडक देने की लेकिन मेरा अस्तित्व पानी का क्षण भर में ख़त्म होता गया और मिट कर भी उनकी नफ़रत की गर्मी को कम नहीं कर पाया । 
 
कितनी बार सोच लिया यहां कोई नहीं अपना फिर क्यों किसी से कोई गिला शिकवा करना । अजीब लोग हैं दुनिया वाले न अपनाते हैं न छोड़ते हैं अपने हाल पर जब चाहा पास बुलाया जब चाहा दूरियां बनाते रहते हैं । इतनी जल्दी मौसम भी नहीं बदलते जितनी जल्दी लोग किरदार बदल लिया करते हैं । अब दिल को कोई मलाल नहीं होता आदत हो गई लोगों की बदलती बातों को देखने की समझना ज़रूरी ही नहीं लगता और कब कोई अपना पराया हो जाता है समझना मुश्किल है । जिस का कोई नहीं उसको उपरवाले का आसरा होता है ये सोच कोशिश की उसी से रिश्ता निभाने की पर कितना कैसे कोई कब तक निभाये किसी पहेली की तरह है । अच्छा हूं या बुरा हूं उस से छुपा नहीं अब उसकी मर्ज़ी मुझे समझे अपना या छोड़ दे अकेला सब की तरह । हम दुआ करते हैं उस तक पहुंचती है सदा कि नहीं क्या खबर । आखिर में दो रचनाएं पुरानी इक कविता और इक ग़ज़ल से बात को छोड़ते हैं कुछ आधी अधूरी कभी होगी पूरी क्या ये है ज़रूरी कुछ होती है सबकी अपनी अपनी मज़बूरी ।

प्यार की आरज़ू ( कविता ) 

बहार की करते करते आरज़ू
मुरझा गए सब चमन के फूल
खिज़ा के दिन हो सके न कम 
यूं जिए हैं उम्र भर हम ।

हमने तो इंतज़ार किया
उनके वादे पे एतबार किया
हम हैं उनके और वो हमारे हैं
पर इक नदी के दो किनारे हैं ।

सब को हर चीज़ नहीं मिलती
नादानी है चाँद छूने की तमन्ना
हमीं न समझे इतनी सी बात
कि ज़िंदगी है यूं ही चलती ।

प्यार की जब कभी बात होती है
आती हैं याद बातें तुम्हारी
इक खुशबू सी महकती है
चांदनी जब भी रात होती है । 
 
 

नहीं साथ रहता अंधेरों में साया ( ग़ज़ल )  

 

नहीं साथ रहता अंधेरों में साया
हुआ क्या नहीं साथ तुमने निभाया ।

किसी ने निकाला हमें आज दिल से
बड़े शौक से कल था दिल में बिठाया ।

कभी पोंछते जा के आंसू उसी के
था बेबात जिसको तुम्हीं ने रुलाया ।

निभाना वफा तुम नहीं सीख पाये 
तुम्हें जिसने चाहा उसी को मिटाया ।

चले जा रहे थे खुदी को भुलाये
किसी ने हमें आज खुद से मिलाया ।

खड़े हैं अकेले अकेले वहीँ पर
जहाँ आशियाँ इक कभी था बसाया ।

उसे याद रखना हमेशा ही "तनहा"
ज़माने ने तुमको सबक जो सिखाया ।
 

 

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