मेरी पुरानी डायरियों से ( कुछ यादें कुछ एहसास ) डॉ लोक सेतिया
[ भाग - दो ]
अधिकांश लिखने वाले अपनी शुरूआती अधकचरी रचनाओं को संभाल कर नहीं रखते बल्कि छुपाए रहते हैं और कभी उनका नामो निशान मिटा देते हैं । कहा जाता है कि उनको पढ़कर किसी को महसूस हो सकता है कि कैसी कैसी अधकचरी रचनाएं लिखते थे । मैं कच्ची मिट्टी की तरह था ज़माने की आग ने मुझे पकाया तब जाकर कुछ पढ़ने के लिए लिखना आया मुझे 45 सालों में लेकिन उस गीली मिट्टी की सौंधी सौंधी खुशबू मुझे अभी भी आती हुई लगती है तभी अपनी पुरानी डायरियों को विरासत की तरह संभाले रखा है ।
15 दिसंबर 1976
ख़्वाबों में ख्यालों में जिए हैं हम
आरज़ू करते करते मुरझाए फूल
दिन ख़िज़ाओं के न हो सके कम ।
हर किसी पर ऐतबार किया है
हम सबके सभी हैं अपने ही तो
सोचते हैं कौन था कोई भी नहीं
हमने क्योंकर इंतज़ार किया है ।
सब को चांदनी नहीं कभी भी मिलती
नादानी वो चांद को छूने की कोशिश
यूं ही हमने कई बार किया नासमझी
ज़िंदगी ठहरी नहीं कहीं रही चलती ।
16 नवंबर 1979
नज़र आता है हर तरफ अंधेरा
मेरी नज़रों का नज़ारों से नहीं
नाता ।
मेरे अधरों का मुस्कानों से जैसे
टूट गया कोई भूला बिसरा था
नाता ।
27 मार्च 1984
जाने क्या हो
अंजाम ज़िंदगी का अपनी
जिएं कैसे मरें भी किस तरह
कुछ भी तो समझ नहीं आता ।
कश्ती तूफानों से उलझती है
है किनारा किधर खबर नहीं
भंवर भी कहीं नज़र नहीं आता ।
17 मार्च 1985
तन्हाईयों में जीना ज़िंदगी तो नहीं
दुनिया की भीड़ में अकेले हम हैं
उजालों की रौनक है ज़माने भर की
अपनी खातिर कोई रौशनी नहीं ।
फुर्सत में कभी कभी ख़्याल आता है
पल दो पल कोई होता साथ साथ
बुझती ज़रा हमारी प्यार की प्यास
बस तमन्ना है ये , कोई बंदगी नहीं ।
22 जून 1985
ग़म रोज़ मिलते रहे नए नए
वर्ना तूफ़ान गुज़र ही जाते
ज़ख्म हर किसी से मिले हमें
वर्ना नासूर भर भी जाते
जिनकी वफाओं पे नाज़ था
काश इतना तो करही जाते
दोस्ती नहीं निभा सकते मगर
दुश्मनी की हद से नहीं बढ़ जाते
तंग आए कश म कश से जब भी
गीत कुछ लब पर चले आये मेरे
उन्हीं गीतों के सहारे है ज़िंदा अभी
' लोक 'वर्ना कब के मर ही जाते ।
23 जून 1985
बहुत गिला था तुम्हारी बेवफ़ाई का
हम ने समझे नहीं थे दुनिया के चलन
ज़माने में बनाते हैं ज़रूरतों की खातिर
नये नये रिश्ते लोग हमेशा कितने ही
छोड़ दिए जाते हैं सहूलियतों के लिए
अब जाना वफ़ा कुछ नहीं सिवा इसके
इक शब्द किताब पर लिखा हुआ सिर्फ
बेबात था शिकवा गिला तुमसे जाता रहा ।
17 अक्टूबर 1985
कभी कभी ( कविता )
होता है एहसास कभी कभी
कि अभी तलक ज़िंदा हैं हम
यूं भी लगता है कभी कभी
लौट कर आ गए वही दिन
मन कहता है ये कभी कभी
आने वाले तो मिलने तुम
मैं भूल जाता हूं कभी कभी
कि बिछुड़ गए कभी के हम ।
1 टिप्पणी:
अलग अलग वर्षों के अहसासों को समेटे बढ़िया रचनाएं👌👍
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