मई 14, 2023

झूठ सच से बड़ा हो गया ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

           झूठ सच से बड़ा हो गया ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

     सच क्या है झूठ कैसा होता है ज़िंदगी भर यही सोचता रहा समझता रहा और बार बार धोखा खाता रहा । सच की राहें कठिन थी जानता था झूठ को आईना सच का दिखलाता रहा । मीठी मीठी बातों से हर शख़्स दिल बहलाता रहा भरोसा किया बंद आंखों से तभी ठोकरें खाता रहा । झूठ नाम शक़्ल बदल बदल मेरे करीब आता रहा खुद मैं झूठ को अपने घर का रास्ता बताता रहा झूठ अपना ठिकाना झूठा बतलाता रहा ख़त भेजा जो भी वापस बैरंग लौट आता रहा । ये भी इक रिश्ता था मैं जिस का भी हुआ वही नहीं मेरा बन सका मैंने सबक सीखा था नाता तोड़ना अच्छा नहीं इस लिए निभाता रहा । नासमझ नहीं नादान था सब जानता समझता था लोग चाल चलते रहे मैं मात हमेशा खाता रहा । झूठ का खेल अजीब था दुनिया को दिखाने को भेस बदल बदल अपना जाल बिछाता रहा जाने क्या नशा था जो सब पर चढ़ता गया जादूगर का जादू असर दिखाता गया ।  
 
    सच सामने है फिर भी किसी को दिखाई नहीं देता , झूठ का रुतबा बढ़ गया है बस उसी का शोर मचा हुआ है कुछ भी और सुनाई नहीं देता । हमने झूठ का पर्दा हटाकर दिखलाया दुनिया वालों को लेकिन झूठ सबको जाना पहचाना अपना सा लगा सच लगा हर किसी अजनबी सा कोई पराया । झूठ का दरबार था घर बार था कारोबार था झूठ खुद अपने आप का कोई इश्तिहार था झूठ का सभी से यही करार था है किनारा वही सच तो मझधार था । झूठ को पांव बिना दौड़ना आ गया था वो तेज़ हवाओं पर सवार था सब स्मार्ट फोन पर काल्पनिक नकली किरदार से सभी खेलने में अपनी सुध-बुध खो कर झूठी दुनिया की बनावटी जंग लड़ने में मशगूल थे हर चीज़ से डरने वाले यहां शूरवीर होने का आनंद उठा खुद को बादशाह समझने लगे थे । कल टीवी पर इक अध्यात्म गुरु ज़िंदगी के राज़ बता रहे थे अपनी शिक्षा को भूलकर कुछ अलग विषय पढ़ा रहे हैं भाषण देकर चोखा धन नाम शोहरत कमा रहे हैं मेरे रास्ते मत चलना नासमझने वालों को समझा रहे थे । कॉमेडी शो की धुन पर सबको नचा रहे थे सही मायने में अपने कारोबार को और अधिक फैला रहे थे । 
 
    झूठ ऐनिमेशन फ़िल्म की तरह से सबको भाने लगा इक रोमांच दिल दिमाग़ पर छाने लगा हर शख्स खुद को कोई महानायक जैसा किरदार समझने लगा कल्पना को हक़ीक़त है मान लो मैं वही हूं सबसे मनवाने की ज़िद में टकराने लगा । खोटा सिक्का खरे को नकली साबित करने लगा अपनी तरकीब पर इतराने लगा सच को कुछ नहीं समझ आया ये कौन ज़हर को दवा बताने लगा । झूठ का इश्तिहार है अंधी गूंगी जनता है और बहरी हुई सरकार है इक बस वही कल्याण करता कलयुगी अवतार है । पास उस के झूठे वादों को पुलिंदा है खज़ाना है सब कुछ संभव है भरमार ही भरमार है । अब आपके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है समझो यही उजाला है फैलाया जो भी मेरा अंधकार है । सच खामोश हो गया भीड़ झूठ साथ है उसकी होने लगी जय जयकार है । झूठ का फैला हर तरफ बाज़ार है सच बोलना घाटे का सौदा है झूठ मुनाफ़े का व्यौपार है । जीत क्या हार क्या सब दिल बहलाने की बातें हैं कोई ज़रूरत नहीं किसका क्या कैसा आधार है पास है पैसा तो कागज़ की नैया भी हो सकती पार है सच से बच कर जाना है वो इक मझधार है । समाज का होने लगा बंटाधार है झूठ इक शिकारी है जिसका कौन नहीं होता शिकार है । अंत में इक ग़ज़ल पेश है ।

                               ग़ज़ल :- डॉ लोक सेतिया 

फिर वही हादिसा हो गया ,
झूठ सच से बड़ा हो गया ।

अब तो मंदिर ही भगवान से ,
कद में कितना बड़ा हो गया ।

कश्तियां डूबने लग गई ,
नाखुदाओ ये क्या हो गया ।

सच था पूछा ,बताया उसे ,
किसलिये फिर खफ़ा हो गया।

साथ रहने की खा कर कसम ,
यार फिर से जुदा हो गया ।

राज़ खुलने लगे जब कई ,
ज़ख्म फिर इक नया हो गया ।

हाल अपना   , बतायें किसे ,
जो हुआ , बस हुआ , हो गया ।

देख हैरान "तनहा" हुआ ,
एक पत्थर खुदा हो गया ।