अप्रैल 17, 2023

कहीं खो गए हैं यहां के सवेरे ( सूरते हाल ) डॉ लोक सेतिया

  कहीं खो गए हैं यहां के सवेरे ( सूरते हाल ) डॉ लोक सेतिया

                             यहां रौशनी में छिपे हैं अंधेरे

                            कहीं खो गये हैं यहां के सवेरे ।

                            बचाता हमें कौन लूटा सभी ने

                            बने लोग सारे वहां खुद लुटेरे ।

ऐसी घटना पहली बार नहीं हुई न ही आखिरी बार हो इस की किसी को चिंता है , कभी वक़्त था शहर गांव में कोई कोई समझदार समझा जाता था । आजकल सब समझदार बने हैं सोशल मीडिया पर मनचाही ब्यानबाज़ी करते हैं अधिक गहनता से सोचना समझना फ़िज़ूल लगता है क्योंकि किसी का कोई उत्तरदायित्व नहीं है । लेकिन क्या हमारे देश में सही गलत कुछ भी कहीं कैसे होता है उस के लिए सरकार सरकारी संगठन संस्थाएं प्रशासन न्यायपालिका से सुरक्षा को नियुक्त कितने अलग अलग विभाग अपना पल्ला झाड़ सकते हैं । यही वास्तविक सवाल है संसद विधानसभाओं से लेकर पुलिस अदालत तक सभी पर कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता कि कितना धन कितने साधन संसाधन खर्च किए जाते हैं अगर ये देश के नागरिक की कोई भलाई नहीं कर सकते बल्कि कड़वा सच है करना ही नहीं चाहते तब इनकी आवश्यकता क्या है । ये गरीब देश बदहाली सहकर भी क्यों इतने सफेद हाथियों को पालते रहने को मज़बूर है । सालों तक अपराधी पकड़े नहीं जाते उनको सज़ा नहीं दिलाई जा सकती बल्कि कितने अपराधी उच्च पदों पर नियुक्त या निर्वाचित हैं और जिस पुलिस को उनको गिरफ़्तार करना है वही उनकी सुरक्षा को तैनात ही नहीं बहुधा उनके तलवे चाटती दिखाई देती है । किसी अपराधी से कोई सहानुभूति कदापि नहीं हो सकती लेकिन जिन गुनहगारों को पुलिस और अदालत सज़ा देने में सालों साल विलंब करती है खुला छोड़े रहती है उन्हीं को कुछ बदमाश पुलिस की हिरासत में खुले आम क़त्ल कर देते हैं तो देश का कानून न्यायपालिका के लिए गौरव की बात नहीं है बल्कि साबित होता है कि उनका होना नहीं होना इक समान है ।   

कहने को तो बयान लगते हैं
खाली लेकिन म्यान लगते हैं ।

वोट जिनको समझ रहे हैं आप
आदमी बेजुबान लगते हैं ।

हैं वो लाशें निगाह बानों की
आपको पायदान लगते हैं ।

ख़ुदकुशी करके जो शहीद हुए
देश के वो किसान लगते हैं ।

लोग आजिज़ हैं इस कदर लेकिन
बेखबर साहिबान लगते हैं ।

देश की जनता की बेबसी और सहनशीलता की भी सीमा होती है लोग आखिर कब तक झूठे वादों के भरोसे ज़िंदा रह सकते हैं । इंसाफ़ की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी है लेकिन उसको सब दिखाई देता है जो उस को देखना पसंद है और जो शासक धनवान ख़ास वर्ग चाहता है दिखाना बस उन को राहत मिलती है बात न्याय की नहीं है उनकी परेशानी को जांचे परखे बिना दूर करना लाज़मी है क्योंकि उनकी पहुंच उनका पैसा उनको सब उपलब्ध करवाता है न्याय भी उनको पहले मिलता है ये विडंबना ही है । गंभीर अपराधी को सज़ा नहीं देने वाली अदालत किसी की अवमानना के मुकदमे को जब जैसा शिकायत करता चाहे सुनती है और फैसला भी तुरंत करती है । अचरज की बात है किसी पर सबसे बड़ी अदालत की अवमानना साबित होने पर एक रुपया जुर्माना सज़ा देते हैं तो किसी पर दो साल की जेल की सज़ा , ये क्या दिखाई नहीं देता न्याय के तराज़ू का पलड़ा बराबर नहीं है । बादशाहों के ज़ुल्म और इंसाफ़ में बहुत कम अंतर होता है मुगले आज़म का इक डायलॉग है । 

सवाल सिर्फ पुलिस और कानून व्यवस्था का ही नहीं है सरकारी तमाम विभाग सामन्य नागरिक से कभी आदर पूर्वक तो क्या इंसानियत का व्यवहार तक नहीं करते हैं । साधारण दस्तावेज़ पाने को बनवाने को कलर्क से लेकर बड़े अधिकारी तक इतना परेशान करते हैं कि आदमी की आधी ज़िंदगी इनकी लापरवाही और मनमानी की भेंट चढ़ जाती है । सरकारी दफ़्तर जनता की सेवा की खातिर होने चाहिए लेकिन ये लगते हैं आम नागरिक को प्रताड़ित करने का कार्य करते हैं दोष यही कि आपकी पहचान सिफ़ारिश नहीं और बिना रिश्वत कोई काम करना उनको स्वीकार नहीं जो तरह तरह से जनता से धन लूट कर सरकारी खज़ाना इसलिए भरते हैं ताकि बाद में विकास के नाम पर कई गुणा अधिक कीमत ठेकेदार या कंपनी को फायदा देने के बदले कमीशन ले कर घर भर सकें और अधिकांश विभाग में ये लूट ऊपर तक बांटी जाती है । कितने अधिकारी हैं जिन  के घर छापे पड़ने  पर करोड़ों की नकद राशि बरामद होती है , रंगे हाथ पकड़े जाने वाले कर्मचारी कुछ दिन बाद फिर से बहाल हो जाते हैं । घोटालों की बड़ी चर्चा होती है लेकिन कभी किसी ने नहीं पूछा या बताया कि सरकारी धन बिना आईएएस अधिकारी के हस्ताक्षर और स्वीकृति खर्च हो ही नहीं सकते । कोई विधायक संसद मंत्री खुद इक पैसा खर्च नहीं कर सकते यहां तक की जिस कल्याण राशि की बात सब जानते हैं उसे भी सरकारी अधिकारी से मिलकर खर्च किया जाता है । 

सोशल मीडिया अखबार टीवी का कोई भी संवैधानिक विशेषाधिकार नहीं हो सकता है लेकिन इन सभी ने इक गठजोड़ कर खुद को चौथा सतंभ करार दे दिया है । और आजकल ये करते क्या हैं असली खबरों को ढकने को बेफ़ज़ूल की बहस में उलझाए रखते हैं वास्तव में ये सब से खतरनाक चिंता की बात है । देश में आज तक किसी भी घोटाले में इतना धन किसी को फायदा पहुंचाने को बर्बाद नहीं किया गया है जितना सरकारी विज्ञापनों की लूट पर इनको फ़ायदा पहुंचाने को नियमित हर दिन बर्बाद किया जा रहा है । किस काम की इतनी बड़ी कीमत वसूल रहे हैं ये खुद को सच का झंडाबरदार कहने वाले जिनको झूठ सच से अच्छा लगता है । टीवी चैनल अखबार आपराधिक छवि वाले बाहुबली से हिंसा फैलाने वाले अपशब्द बोलकर लोगों को उकसाने भड़काने वाले नेताओं को बढ़ावा देते हैं और इनके शो से सीरियल तक समाज को गलत संदेश देने का काम करते हैं चंद पैसों की खातिर । आदर्श की ईमानदारी की परिभाषा से ये अनजान हैं सब से सवालात करने वाले अपने गिरेबान में कभी नहीं झांकते हैं । सरकारी विज्ञापन की बैसाखी के बगैर इक कदम नहीं चल सकते हैं । 
 
कल सोशल मीडिया पर कोई समझा रहा था कि रामायण और महाभारत में भी किस किस को ऐसे ही छल पूर्वक मारा गया था । आज सैर करते हुए सुनाई दिया कि उन बदमाशों को क़त्ल करने वालों ने बड़ा ध्यान रखा ताकि किसी और को कोई हानि नहीं हो , मानो उनको वो अपराधी कोई मुजरिम नहीं अवतार लग रहे हों जो पापियों का अंत करने को आये हों । धर्म का अधकचरा ज्ञान पाकर लोग सही गलत ही नहीं बल्कि अधर्म को धर्म समझने की बात कर रहे हैं । हमने कैसे कैसे लोगों को नायक समझ लिया है बड़े खूंखार डाकुओं से सोने चांदी के मुकट स्वीकार करने वाले चुनावी सभाओं में मंच पर अपराधी से मिलकर उसकी बढ़ाई करने वाले और सत्ता या बहुमत पाने चुनाव जीतने को अपराधी लोगों को दल में शामिल कर सब करने वाले क्या जनता का कल्याण कर सकते हैं । तस्वीर बताती है कहानी सब को मालूम है । 



1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

शानदार लेख सर...सामयिक व्यवस्था पर प्रश्न करता...सफेद हाथियों को पालते रहने को मजबूर👌👌👍👍