जून 06, 2020

हालत खराब अर्थव्यवस्था की ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

    हालत खराब अर्थव्यवस्था की ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

   " ये क्या हालत बना रखी है अपनी , कुछ लेती क्यों नहीं। " अर्थव्यवस्था को देखते ही मैंने कह दिया। क्या आपको मज़ाक लगता है जो खांसी-ज़ुकाम की दवा का इश्तिहार पढ़ कर मेरे जले पर नमक छिड़क रहे हो। कुछ बुरा लगा उसको , मैंने कहा नहीं माफ़ करना ये डायलॉग अचानक मुंह से निकल गया। मगर मुझे दिल से सहानुभूति  है आपकी अधमरी हालत देखी नहीं जाती। उसने कहा आप तो लेखक लोग महिलाओं की गरीबों की हर किसी की दर्द भरी दास्तां सुनाते हो कभी मेरी भी व्यथा कथा सुन कर समझोगे। उसके बाद मेरे हां कहने पर उसने रो रो कर अपनी कथा ब्यान की जो मैं उसी के शब्दों में आपको बताता हूं। 

आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया। देश की आमदनी से बढ़कर सरकार के खुद अपने खर्चे रहे हैं जो भी सत्ता में आया उसी ने मुझे अपनी ऐशो आराम की मनमौजी की चाहत को पूरा करने में खूब जमकर उपयोग किया। किसी बेबस अबला की तरह खामोश रहना मेरी मज़बूरी बन गया। मगर जैसे भी कभी कुछ बिमार कभी कुछ काम चलाऊ हालत रहती थी। मगर छह साल पहले किसी ने आकर मुझे कहा तुझे अभी तक सभी ने लूटा है मगर मैं किसी चौकीदार की तरह तेरी रखवाली करूंगा तुझे बिकने नहीं दूंगा और मुझे शासक नहीं सेवक बनकर सबका विकास करना है सबका साथ पाना है। बस तुम खुद को मेरे हवाले कर दो बस मेरी सिर्फ मेरी बनकर मुझ पर अटूट विश्वास रखना। उसके बाद उसने क्या क्या किया और क्या क्या नहीं किया कहना आसान नहीं है। किसी नीम हकीम की तरह ऐसा ईलाज करता गया कि मेरी दशा और बिगड़ती गई। उस से पहले किसी ने बहुत समझदारी से मुझे चलने फिरने के लायक बनाया था और इसने तो मेरा जिस्म ही छलनी छलनी कर दिया। अपने से पिछले सत्ताधारी लोगों को चोर घोषित करने वाला खुद डाका डालने लगा और चौकीदार के फ़र्ज़ को भूलकर डाका डालने वाले अपने लोगों को अवसर देता रहा और उनको भागने बचाने में साथ देकर उनका विकास करता रहा। अब अपना दोष कोरोना के सर मढ़ना चाहता है जबकि खुद उसकी नासमझी मनमानी और महत्वांकांक्षाओं की पूर्ति करने से मुझे बाणों की इस शैया पर अंतिम सांसे गिनने को छोड़ दिया है। लेखक आपको वो पुरानी कहानी याद है तो मुझे सुनाओ , उसी तरह जैसे लोग किसी को आखिरी समय में गीता का कोई अध्याय पढ़कर सुनाया करते हैं उसकी आत्मिक शांति की खातिर। सोचते सोचते याद आई तो है कुछ भूली हुई कुछ याद है। 

    किसी महाजन का कारोबार था कुछ खरीदना कुछ बेचना कुछ कहीं से उधार लेना और आगे किसी को ब्याज पर क़र्ज़ देना। ऐसे में नौकर चाकर रखना और देखभाल को चौकीदार अपने लिए सेवक रखना ज़रूरी था। कोई ईमानदार कोई हेराफेरी करने वाला कोई कामचोर मिलता था कभी आमदनी अच्छी कभी थोड़ी होती रहती थी मगर कारोबार फैलता गया और फल फूल रहा था। शायद पत्नी का भाई था या किसी और के कहने पर विश्वास कर इक मैनेजर रख लिया। मैनेजर ने कहा आपको चिंता की ज़रूरत नहीं मुझे सब को संभालना ठीक से आता है मुझ पर भरोसा रखो और आपको घर बैठ आराम करना चाहिए। उस मैनेजर ने अपने लिए आलीशान दफ्तर बनवा लिया विदेशी सैर सपाटे कारोबार को बढ़ाने के नाम पर अपने रिश्ते बनाने लगा भविष्य को सब अपना अधिकार स्थापित करने का सपना लेकर। बिना जाने समझे बही-खाता देखे जैसे जितना भी था अपने आप पर खर्च करता रहा और कारोबार में जो जो भी पहले जमा किया हुआ था धन दौलत और जायदाद उद्योग शेयर या फिक्स डिपॉज़िट सब ही बर्बाद कर डाले। बात दिवालिया होने तक पहुंच गई मगर मैनेजर को अपनी चालाकी और काबलियत पर गर्व था। उसका मत था सब को मिटाने के बाद भी फिर से नया निर्माण किया जा सकता है। महाजन की साख थी मैनेजर को जितना चाहे क़र्ज़ मिल जाता था लेकिन महाजन जो क़र्ज़ लेता था उसे अपने ऐशो- आराम पर कभी खर्च नहीं करता था बल्कि उस पैसे को आगे अधिक ब्याज पर देकर आमदनी का तरीका बनाया हुआ था। किसी साधु ने उसको इक दिन कहा था ऐसी कमाई कोई और खा जाएगा तुम्हारे काम नहीं आएगी। ये कुछ दिन का खेल तमाशा हैं खेल लो मगर अंजाम क्या होगा सामने आएगा। 

      मैनेजर ने पिछले सभी नौकर चाकर धीरे धीरे बदल कर अपने सगे संबंधी खास अपने लिए निष्ठा रखने वाले लोग रख लिए। उनकी समझ काबलियत नहीं उनके साथ अपना नाता देख कर। और उनको भी कुछ भी करने की छूट नहीं थी जैसा आदेश मिलता उनको पालन करना होता। पहले सस्ता खरीद कर मुनाफ़ा लेकर जो बिकता था अब महंगा खरीद सस्ता बेचने का घाटे का धंधा होने लगा। मकसद मैनेजर साहब जिनको खुश करना चाहते उनको अपना घर बर्बाद कर भी मालामाल करना बन गया। मैनेजर के साथ संगी साथी भी जिस जिस शहर में कारोबार की देखभाल करते थे उस में घपले घोटाले करने लगे मालिक बनकर और जो असली महाजन थे उनको झूठ बताया जाता रहा कि देश क्या विदेश तक धंधा खूब चल रहा है। ऐसे में कब कारोबार चौपट हो गया और हालत खराब होने पर सब बिकने के बाद भी बात संभल नहीं सकी तो जालसाज़ी या छल कपट से असली मालिक को ही बाहर कर दिया गया। उसको पागल और खुद को कारोबार का संरक्षक साबित कर दिया झूठे दस्तावेज़ बनवा कर। महाजन ने समझ लिया ये कोई और युग आने का संदेश है क्योंकि चार युग में ऐसा होने का कोई वर्णन नहीं मिलता है। तब उसको नहीं पता था कि वो युग कौन सा होगा और उसकी कहानी भी अलग थी। अब समझ सकते हैं कि जिस की कल्पना की थी वो शायद यही पांचवां युग है जिसको कोरोना काल कह सकते हैं।

  पहले नौकर हेराफ़ेरी करते थे तो भी आमदनी कम हो जाती थी जब खुद मालिक चोरी करता है तो असल भी बचता नहीं है ये कारोबार का नियम है कि जब हिस्सेदार खुद हिस्सा हड़पने लगते हैं तब कारोबार चौपट होना ही है। मैनेजर ने मालिक से महाजन से धोखा किया उसके खास लोगों ने मैनेजर से धोखाधड़ी की और इक दिन मैनेजर की जालसाज़ी पकड़ी गई और उसका सब किया धरा बेकार गया। महाजन को बर्बाद करने के बाद भी मैनेजर को कुछ दिन की मौज मस्ती के बाद जो अंजाम हुआ कभी नहीं सोचा था। मैनेजर को इक दिन मेज़ की दारज से इक चिट्ठी मिली जिस पर लिखा हुआ था मुझे किसी ने सही राह समझाई थी , कि अपने आराम और शानदार जीवन को अपनी ईमानदारी की कमाई से खर्च करना चाहिए क्योंकि तब उस पैसे की वास्तविक कीमत समझ आती है। किसी और की दौलत से ठाठ करना दान धर्म करना कभी भी आपको वास्तविक सुःख शांति नहीं दे सकता है। तुमने मुझे लूटा कोई तुमसे भी छीन लेगा सभी किसी दिन।

 अर्थव्यवस्था ने इतनी कहानी सुनते ही मुझे चुप रहने को कह दिया। शायद अभी कहानी का शेष भाग किसी और दिन सुनना चाहती है या कोई और लेखक तलाश करना चाहती है जो लिखे तो हर कोई पढ़ सके जान सके। मुझे कौन पहचानता है पढ़ता है अर्थव्यवस्था को पता है। मगर जब देश की अर्थव्यवस्था चलाने वाले अर्थशास्त्र का कुछ नहीं जानते तब भला नाम वाला बड़ा साहित्यकार अर्थव्यवस्था की दर्द भरी दास्तान क्यों लिखेगा। ऐसे लोगों की अर्थव्यवस्था की हालत अच्छी है और उनको सब हासिल है। ये खबर भी कोई नहीं बताता जबकि उनको खबर है यही असली खबर है जो सबको बतानी चाहिए। मगर उनका रिश्ता मैनेजर और उसके बंधुओं जैसा ही है। अर्थव्यवस्था की कहानी सेवक बनकर मालिक होने का अधिकार हासिल करने की अनीति की कथा है सार की बात यही है। 


कोई टिप्पणी नहीं: