मार्च 17, 2025

POST : 1953 कितने क़ातिल मसीहा कहलाते हैं ( व्यंग्य- कथा ) डॉ लोक सेतिया

कितने क़ातिल मसीहा कहलाते हैं ( व्यंग्य- कथा ) डॉ लोक सेतिया 

                 {  कलयुगी कथा का अगला अध्याय पढ़ते हैं  }

देश आज़ाद हुआ जनता की तकदीर कभी नहीं बदली , ज़ुल्म वही ज़ालिम बदलते रहते हैं अब ज़ालिम का तौर तरीका इतनी जल्दी बदलता है कि समझ नहीं आता ये इंसाफ़ करते हैं या सच को सूली पर चढ़ाया जाता है ।  सरकार प्रशासन न्यायपालिका सुरक्षा तंत्र बनाया गया सामन्य लोगों को अधिकार और समानता प्रदान देने को नाम दिया गया जनसेवा समाज कल्याण इत्यादि । जनता को प्रतिनिधि चुनने का अवसर दिया गया वोट देने का लेकिन देश की राजनीति ने चुनावी प्रक्रिया को किसी शतरंज की बिसात पर मोहरों का खेल बनाकर सत्ता को उस में मनमानी करने खिलवाड़ करने की खुली छूट दी गई । जब भी जहां लगा वास्तविक लोकतंत्र राजनेताओं की आकांक्षाओं में अड़चन पैदा कर सकता है लोकतंत्र को ही कुचल कर अपाहिज बना दिया गया । लोकतंत्र का शोर सुनाई देता है वास्तविक लोकतांत्रिक प्रणाली व्यवस्था कहीं दिखाई नहीं देती है । गांव से शहर शहर से महानगर महानगर से राजधानी तक जनता को उलझाने को इतने दफ़्तर विभाग बना दिए गए लेकिन एक भी ऐसा नहीं जो सही कर्तव्य निभाता बल्कि जनता की परेशानी दुःख दर्द पर मरहम लगाने की जगह नमक छिड़कने का काम कर्मचारी अधिकारी करते रहते हैं । सामन्य व्यक्ति पर कानून कड़ाई से लागू करने वाले सरकारी तंत्र विभाग अधिकारी कर्मचारी पर फ़र्ज़ नहीं निभाने पर कोई सज़ा क्या कोई सवाल तक नहीं पूछता है । कर्तव्य को भूलकर सरकारी प्रशासनिक व्यवस्था जनता को न्याय मिलने में बाधाएं उतपन्न करने लगी ताकि उसको रिश्वत मिल सके , बिना घूस या सिफारिश कोई भी उचित काम भी नहीं करता है , जेब भरने पर सभी कार्य करते हैं अनुचित भी उचित भी । 

कभी लोग शिकायती पत्र लिखते थे सत्ताधारी उच्च पद पर बैठे शासक को तब कुछ असर होता था कोई शर्मसार होकर अपनी गलती सुधरता था । बाद में ये सामन्य बात लगने लगी और इतनी बेहयाई करने लगे कि ऊपर विभाग से बार बार पत्राचार से कुछ करने का कोई जवाब ही नहीं देते निचले अधिकारी कर्मचारी । क्योंकि सरकारी कर्मचारी पर काम नहीं करने या जो करना है उसे नहीं करने पर कुछ भी करवाई नहीं की जा सकती इसलिए जनसेवा को सभी ने मनमानी करने का हक समझ लिया । सत्ताधारी राजनेताओं को भी देश समाज जनता की नहीं सिर्फ अपनी कुर्सी और अपने लिए शान ओ शौकत की ज़रूरत महत्वपूर्ण लगने लगी है ।  धीरे धीरे हालत इतनी खराब हो गई है कि अपराधी संसद विधायक बन कर सत्ता को अपहरण कर पूरी व्यवस्था को ऐसा गठजोड़ बना लिया है जिस में गुंडे बाहुबली भ्र्ष्ट राजनेता और सरकारी प्रशासन मिलकर देश समाज को बर्बाद करने लूटने लगे हुए हैं । 140 करोड़ जनता का बड़ा भाग बुनियादी सुविधाओं से वंचित है मगर शासक लोग खुद अपने पर बेतहाशा धन खर्च कर आज़ादी और न्यायव्यवस्था का मज़ाक किये हुए हैं । शायद उनको संविधान की शपथ भूल गई है और ईमानदारी नैतिकता को ताक पर रख छोड़ा है । 
 
समय के साथ जनता की परेशानियां ख़त्म नहीं हुईं बढ़ती जा रही हैं , ऐसे में पुरानी खुले दरबार या अन्य स्थानीय कष्ट निवारण की सभाओं की जगह आधुनिक पोर्टल साइट्स पर शिकायत दर्ज करने को विकल्प बनाया गया है ।  लेकिन ये सबसे बड़ा धोखा अथवा छल साबित हुआ है क्योंकि उन पर दर्ज शिकायत पर कोई गौर ही नहीं किया जाता और किसी दफ़्तर में बैठा कोई व्यक्ति टिप्पणी कर शिकायत का निपटारा किया लिख देता है बिना ठीक से जाने समझे । जो टिप्पणी की जाती है वास्तव में कोई इंसाफ़ नहीं ज़ख़्म पर नमक छिड़कने जैसा होता है । सरकार के तमाम झूठे आंकड़ों विज्ञापनों की तरह इस सब पर कितना धन व्यर्थ बर्बाद किया जाता है नतीजा कुछ भी नहीं । इस तरह से पोर्टल पर संख्या घटाने से जनता की समस्याएं कभी हल नहीं हो सकती हैं , जबकि पोर्टल पर नियुक्त नोडल अधिकारी को विवेक से समस्या समझनी ही नहीं होती है जिस से लोग सालों से पीड़ित है नोडल अधिकारी एक दिन बाद ही उस पर निर्णय सुनाता है कि ये शिकायत विचारणीय नहीं है । 

ऐसा क्यों है आखिर में समझना होगा कि हमारे प्रशासन पुलिस न्याय व्यवस्था सरकारी कार्यशैली में रत्ती भर भी मानवीय संवेदना बची नहीं है । सरकार अपनी नाकामी को ढकने को बताती है कि कितने करोड़ लोगों को क्या क्या दिया जाता है । जबकि सोचना चाहिए था कि आज़ादी के 77 साल बाद इतने लोग गरीब भूखे बदहाल क्यों हैं क्या इसका कारण वही लोग नहीं जिनको बहुत कुछ करना चाहिए था लेकिन कुछ भी नहीं किया सिवा झूठे आश्वासन आंकड़े और खोखले वादों के । विडंबना की बात है कि ऐसे तमाम क़ातिल मसीहा कहलाते हैं । कथा अनंत है विराम देते हुए कुछ दोहे सुनाते हैं । 

देश के वर्तमान हालात पर वक़्त के दोहे - डॉ  लोक सेतिया 

नतमस्तक हो मांगता मालिक उस से भीख
शासक बन कर दे रहा सेवक देखो सीख ।

मचा हुआ है हर तरफ लोकतंत्र का शोर
कोतवाल करबद्ध है डांट रहा अब चोर ।

तड़प रहे हैं देश के जिस से सारे लोग
लगा प्रशासन को यहाँ भ्रष्टाचारी रोग ।

दुहराते इतिहास की वही पुरानी भूल
खाना चाहें आम और बोते रहे बबूल ।

झूठ यहाँ अनमोल है सच का ना  व्योपार
सोना बन बिकता यहाँ पीतल बीच बाज़ार ।

नेता आज़माते अब गठबंधन का योग
देखो मंत्री बन गए कैसे कैसे लोग ।

चमत्कार का आजकल अदभुत  है आधार
देखी हांडी काठ की चढ़ती बारम्बार ।

आगे कितना बढ़ गया अब देखो इन्सान
दो पैसे में बेचता  यह अपना ईमान।  
 
अंधे - बहरे शहर में ये बातें बेमोल 
कौन सुनेगा अब यहां तनहा तेरे बोल ।  
 
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