मार्च 13, 2025

POST : 1951 बड़े बेदर्द होते हैं शासक ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

         बड़े बेदर्द होते हैं शासक ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

सच बताना चाहिए , कितना बड़ा फ़रेब लोगों से किया जाता है कि लोकतंत्र बड़ी शानदार व्यवस्था है । सही में ऐसा होता तो अभी तलक आज़ाद होने के 77 साल बाद जनता की हालत भिखारी जैसी नहीं होती न ही जिसे जनता ने सेवक चुना वही शासक बन कर जब जैसे चाहे दो प्रकार से नियम कानून बनाते जनता के लिए सज़ा देने वाले और सत्ता और प्रशासन सरकार के लिए मनचाहे वरदान पाने वाले । संविधान की शपथ उठाते हैं जो उनको संविधान की भावना का कोई ज्ञान नहीं होता है , और उस शपथ को सत्ता पाते ही सभी भूल जाते हैं । मैं शपथ उठाता हूं सभी के साथ न्याय करने की , जबकि आज देखते हैं तो वास्तविकता विपरीत नज़र आती है , अदालतों से सरकारी दफ्तरों तक लोग बेबस होकर भटकते रहते हैं न्याय की जगह अपमान और सज़ाएं मिलती हैं । मगर शासक वर्ग खुद अपने लिए जब जैसे चाहे नियम कानून बदल कर सेवक नहीं शासक की तरह आचरण करते हैं , मंत्री से अधिकारी तक कहते हैं दरबार लगाते हैं । अजीब तमाशा है जो असली मालिक है जनता वही याचक बन कर अपने अधिकारों की भीख मांगते हैं । जैसे कोई नकाब लगा कर चेहरा छुपाए रहता हो ठीक उसी तरह सत्ताधारी लोग घोषणा करते हैं जनकल्याण की लेकिन वास्तव में सिर्फ खुद अपना ही भला चाहते हैं । हमदर्द होने का दावा करने वाले कितने बेदर्द होते हैं वही जानते हैं जिन पर गुज़रती है । निर्वाचित होते ही हर जनप्रतिनिधि अचानक बड़ी बड़ी गाड़ियों और शान ओ शौकत से रहने लगता है ये करिश्मा कभी साधरण जनता पर नहीं होता है । लेकिन हम खामोश रहते हैं क्योंकि हमने खुद सच बोलने का हक छोड़ दिया है झूठे लोगों की जय-जयकार कर उनको चुनकर । 
 
कहते हैं पुराने राजा ज़ालिम थे , वो भी अत्याचारी थे जिन्होंने हमको अपना गुलाम बनाए रखा , लेकिन क्या आज के शासक निरंकुश नहीं हैं । आज खुद हमारे बनाये बुत खुद को खुदा समझते हैं और हम लोगों को अपमानित करते हैं इश्तिहार लगवा कर खैरात बांटते हैं । कौन दाता है कौन भिखारी है विडंबना है जिस जनता ने सर पर बिठाया उस पर मनमाने ढंग से कितने ही कर लगाकर खज़ाना भरते हैं फिर उसी से नाम भर को देने को अपनी महानता घोषित करते हैं । कुछ खास लोगों के लिए कानून हाथ जोड़ खड़ा रहता है जो धनवान सत्ता से करीबी रिश्ता रखते हैं अन्य सभी से कानून कोड़े बरसाने का कार्य करता है । लोकतंत्र क्या यही होता है कि कोई शासक है जो सिर्फ भाषण देता है या शानदार दफ़्तर में बैठ गरीबी और देश की जनता की समस्याओं पर बहस करता है कभी समस्याओं का समाधान नहीं करता । अभी तक सभी को बुनियादी सुविधाएं जीने की हासिल नहीं और सरकार कहती है देश आगे बढ़ रहा है जबकि हालत दिन पर दिन और भी खराब होती जा रही है । देश जलता है कोई नीरो बंसी बजाता हो ये कभी हुआ होगा आजकल कितने ऐसे लोग हैं जो सत्ता पर बैठ रोज़ कोई जश्न मनाते हैं कोई आडंबर कोई तमाशा अपने दिल बहलाने को आयोजित करते हैं । 
 
होली है बुरा न मानो , इक दिन की बात नहीं है इस देश में शासक वर्ग हर दिन जनता से खिलवाड़ करते हैं और जनता बेचारी कुछ कह भी नहीं सकती । जैसे कोई आशिक़ अथवा पति किसी महिला से गलत व्यवहार करने को अपने प्यार करने का ढंग बताता है हर सरकार वही करती है । पांच साल की बात नहीं है हर बार वही सब दोहराया जाता है । होली की पिचकारी सत्ता के पास रहती है और होलिका दहन में आग में कोई बुराई नहीं जलती उसकी लपटें जनता को जलाने को व्याकुल हैं । जनता के लिए दशहरा हो चाहे होली हो बदलता कुछ भी नहीं है ढोंगी लोग अलग अलग रूप बदल छलते हैं , बहरूपिया शासक बन गए हैं जो कभी घर घर जाकर हंसाते थे अब रुलाने लगे हैं ।  
 

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