शहीदों की कुर्बानी के 94 साल बाद ( देश वहीं खड़ा है ) डॉ लोक सेतिया
भगत सिंह राजगुरु सुखदेव तीन युवा आज़ादी के परवाने हंसते हंसते फांसी पर चढ़ गए थे 23 मार्च 1931 को । आज भी आधी रात को कोई बेचैन है देख कर अंग्रेजी शासन से भी अधिक निरंकुश शासक और प्रशासक जनता का दमन करते हैं सरकार का अर्थ सामाजिक सरोकार नहीं सत्ता की मनमानी बन गया है । ऐसे में वही लोग शहीदों की समाधियों बुतों पर फूलमाला अर्पित कर दिखावे की श्रद्धा जताते हैं उनके विचार उनका मकसद सभी को न्याय और समानता मिलने का किसी को याद नहीं है महत्वपूर्ण खुद को शायद उन से बड़ा देशभक्त दिखाना होता है जबकि वास्तविकता में उन्होंने समाज देश को कुछ दिया नहीं बल्कि छीना है । आज 140 करोड़ में से 80 करोड़ भूखे नंगे हैं क्योंकि कुछ लोगों ने उनके हिस्से का सभी कुछ लूट लिया है और रोज़ खुद पर बेतहाशा धन बर्बाद करते हैं । सामन्य वर्ग की समस्याओं के प्रति उदासीन और बेपरवाह हैं उनको रत्ती पर भी खेद नहीं है कि आज़ादी के 77 साल बाद ऐसा क्यों है । राजनीति इतनी संवेदनहीन बन गई है कि उसे सत्ता और चुनाव को छोड़ कुछ भी समझ नहीं आता है । देश को स्वतंत्र करवाने को जिन लोगों ने जीवन अर्पित किये कुर्बानियां दीं उनके लिए इक दिन कुछ क्षण औपचारिकता निभाने के अलावा कुछ भी उनको ज़रूरी नहीं लगता है ।
अफ़सोस इस बात का है कि तमाम लोग सरकारी व्यवस्था और प्रशासनिक आचरण से परेशान हैं मगर कोई भी खुलकर सामने नहीं आता विरोध कर अन्याय को अन्याय कहने का साहस कर । क्या हम उनकी विरासत को संभाल नहीं सके हैं कायर हैं डरपोक हैं , आंदोलन भी कोई स्वार्थ कोई मकसद हासिल करने को करते हैं देश की लच्चर व्यवस्था भेदभाव पूर्ण व्यवहार को बदलने की कोशिश तक नहीं करते । सिर्फ कुछ खास दिनों पर देशभक्ति की भावना दिखाई देती है जैसे कोई मनोरंजन का अवसर हो कोई चिंतन नहीं करते कभी कि इतने सालों ने साधारण जनता को क्या मिला है बुनियादी सुविधाएं अधिकार तक नहीं बल्कि हाथ जोड़े खड़े हैं ज़ालिम प्रशासन सरकार के सामने । ऐसी आज़ादी की कल्पना नहीं की थी जिन्होंने देश को आज़ाद करवाने को अपना सर्वस्व और जीवन अर्पित किया था । किसी खेल के मैदान में चेहरे या पोशाक को तिरंगे रंग में रंगने से वास्तविक कर्तव्य देश के प्रति पूर्ण नहीं होता है । शासक बनकर अपनी सुख सुविधा की खातिर नियम कानून बनाकर जनता का शोषण करने वाले मुजरिम हैं शहीद भगत सिंह राजगुरु सुखदेव जैसे अमर शहीदों के , उन को फूल अर्पित करने से बेहतर होगा उनकी आंकाक्षाओं अपेक्षाओं पर विचारधारा पर चल कर वास्तविक श्रद्धा व्यक्त करते । अंत में अमर शहीदों को नमन करते हुए दो रचनाएं प्रस्तुत हैं ।
जश्न ए आज़ादी हर साल मनाते रहे ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
जश्ने आज़ादी का हर साल मनाते रहेशहीदों की हर कसम हम भुलाते रहे ।
याद नहीं रहे भगत सिंह और गांधी
फूल उनकी समाधी पे बस चढ़ाते रहे ।
दम घुटने लगा पर न समझे बात ये कि
काट कर पेड़ क्यों रहे शहर बसाते रहे ।
लिखा फाइलों में न दिखाई दिया कभी
लोग भूखे हैं सब नेता सच झुठलाते रहे ।
दाग़दार हैं इधर भी और उधर भी मगर
आईना खराब है चेहरे अपने छुपाते रहे ।
आज सोचें ज़रा क्योंकर ऐसे होने लगा
बाड़ बनकर राजनेता देश खेत खाते रहे ।
यह न सोचा कभी भी आज़ादी किसलिए
ले के अधिकार सब फ़र्ज़ अपने भुलाते रहे ।
मांगते सब रहे रोटी दो वक़्त छोटा सा घर
पांचतारा वो लोग कितने होटल बनाते रहे ।
खूबसूरत जहाँ से है हमारा वतन , गीत को
वो सुनाते रहे सभी लोग भी हैं दोहराते रहे ।
आज सोचें ज़रा क्योंकर ऐसे होने लगा
बाड़ बनकर राजनेता देश खेत खाते रहे ।
यह न सोचा कभी भी आज़ादी किसलिए
ले के अधिकार सब फ़र्ज़ अपने भुलाते रहे ।
मांगते सब रहे रोटी दो वक़्त छोटा सा घर
पांचतारा वो लोग कितने होटल बनाते रहे ।
खूबसूरत जहाँ से है हमारा वतन , गीत को
वो सुनाते रहे सभी लोग भी हैं दोहराते रहे ।
वो पहन कर कफ़न निकलते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
वो पहन कर कफ़न निकलते हैंशख्स जो सच की राह चलते हैं ।
राहे मंज़िल में उनको होश कहाँ
खार चुभते हैं , पांव जलते हैं ।
गुज़रे बाज़ार से वो बेचारे
जेबें खाली हैं , दिल मचलते हैं ।
जानते हैं वो खुद से बढ़ के उन्हें
कह के नादाँ उन्हें जो चलते हैं ।
जान रखते हैं वो हथेली पर
मौत क़दमों तले कुचलते हैं ।
कीमत उनकी लगाओगे कैसे
लाख लालच दो कब फिसलते हैं ।
टालते हैं हसीं में वो उनको
ज़ख्म जो उनके दिल में पलते हैं ।

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