फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी ( पुस्तक समीक्षा ) समीक्षक : घमंडीलाल अग्रवाल
समाज को आईना दिखाती ग़ज़लें — डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल , गुरुग्राम ( हरियाणा )
हिंदी
साहित्य की एक नाज़ुक और लोकप्रिय विधा है - ग़ज़ल । ग़ज़ल को लेकर आज
अधिकांश क़लमकार सजग हैं और अपनी भावाभिव्यक्ति प्रदर्शित कर रहे हैं
जिनमें अपना व समाज दोनों का दर्द निहित है ।
डॉ. लोक सेतिया एक प्रतिष्ठित रचनाकार हैं जिनकी नवीनतम कृति है - । ’ फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी '
कृति
में 130 ग़ज़लें और 21 नज़्में हैं । शायर को ठहराव पसंद नहीं है , इसीलिए
ये ग़ज़लें और नज़्में भी गतिमान हैं । इनमें जीवन का फ़लसफ़ा है ,
वैयक्तिक पीड़ा है , सामाजिक विसंगतियाँ हैं तथा है आम आदमी का दर्द । ये
मन को सुकून देती हैं व सोचने को विवश भी करती हैं ।
कहीं अल्फ़ाज़ सारे खो गये हैं ,
तभी ख़ामोश लब सब हो गये हैं ।
शायर का दर्द दर्शाती एक ग़ज़ल का शेर देखिए —
किसे हम दास्ताँ अपनी सुनायें,
कि अपना मेहरबाँ किसको बनायें ।
शायर ज़माने को आगाह भी करता है —
नया दोस्त कोई बनाने चले हो,
फिर इक ज़ख़्म सीने पे खाने चले हो ।
लोग भला किसके सगे हुए हैं , यह बात शायर बख़ूबी जानता है —
हमको ले डूबे ज़माने वाले,
नाखुदा ख़ुद को बताने वाले ।
समाज में व्याप्त विसंगतियों की ओर इशारा देखिए —
कैसे कैसे नसीब देखे हैं ,
पैसे वाले ग़रीब देखे हैं ।
फिर भी शायर आशा का दामन थामे हुए है —
दिल पे अपने लिख दी हमने तेरे नाम ग़ज़ल ,
जब नहीं आते हो आ जाती हर शाम ग़ज़ल ।
निराश मानव को शायर का सुझाव है —
हल तलाशें सभी सवालों का ,
है यही रास्ता उजालों का ।
शायर की पूँजी उसका अपना स्वाभिमान है —
सबसे पहले आपकी बारी ,
हम न लिखेंगे राग दरबारी ।
ज़िंदगी क्या है, देखिए —
मुश्किलों का नाम है ये ज़िंदगी ,
दर्द का इक जाम है ये ज़िंदगी ।
भौतिकतावादी इस युग की सच्चाई भी क्या ख़ूब है —
सभी कुछ था मगर पैसा नहीं था ,
कोई भी अब तो पहला-सा नहीं था ।
मतलबपरस्त सरकार पर शायर का प्रश्नचिन्ह देखिए —
सरकार है ,बेकार है , लाचार है ,
सुनती नहीं जनता की हाहाकार है ।
राजनेताओं पर आरोप लगाता हुआ शायर कह उठता है —
तुम बताओ है कहीं ऐसा जहाँ ,
राजनेता दर्द को समझे कहाँ ।
सचाई की राह ही जीवनोपयोगी होती है । बक़ौल शायर -
पथ पर सच के चला हूँ मैं ,
जैसा अच्छा - बुरा हूँ मैं ।
हमें विश्वास का आँचल नहीं छोड़ना चाहिए —
उन्हें मिल ही जाते हैं इक दिन किनारे ,
जो रहते नहीं नाखुदा के सहारे ।
सभी ग़ज़लें ख़ूबसूरत बन पड़ीं हैं । इनकी छांव मन को सुकून देती हैं । नज़्मों में भी ग़ज़लों जैसी ही रवानी है ।
’ बेचैनी’ से —
पढ़कर रोज़ ख़बर कोई ,
मन फिर हो जाता है उदास ।
‘ क्या हो गया ’ में सच का दर्द देखते चलिए —
मत ये पूछो कि क्या हो गया ,
बोलना सच ख़ता हो गया ।
एक साफ़-सुथरे संग्रह के लिए शायर डॉ. लोक सेतिया को ख़ूब सारी बधाइयाँ । हिंदी ग़ज़ल में कृति का खुलेमन से स्वागत होना चाहिए ।
कृति : फलसफ़ा-ए-ज़िंदगी
शायर : डॉ. लोक सेतिया
प्रकाशक : श्वेतवरणा प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ : 168
मूल्य :₹200
26 जनवरी 2022
समीक्षक संपर्क फोन नंबर - +91 92104 - 56666
1 टिप्पणी:
सुंदर समीक्षा👌👍
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