जनवरी 27, 2025

POST : 1942 फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी ( पुस्तक समीक्षा ) समीक्षक : घमंडीलाल अग्रवाल

 फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी  ( पुस्तक समीक्षा ) समीक्षक : घमंडीलाल अग्रवाल

 

समाज को आईना दिखाती ग़ज़लें — डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल  , गुरुग्राम ( हरियाणा )

हिंदी साहित्य की एक नाज़ुक और लोकप्रिय विधा है - ग़ज़ल । ग़ज़ल को लेकर आज अधिकांश क़लमकार सजग हैं और अपनी भावाभिव्यक्ति प्रदर्शित कर रहे हैं जिनमें अपना व समाज दोनों का दर्द निहित है ।
 
   डॉ. लोक सेतिया एक प्रतिष्ठित रचनाकार हैं जिनकी नवीनतम कृति है -  । ’ फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी '
 
कृति में 130 ग़ज़लें और 21 नज़्में हैं । शायर को ठहराव पसंद नहीं है , इसीलिए ये ग़ज़लें और नज़्में भी गतिमान हैं । इनमें जीवन का फ़लसफ़ा है , वैयक्तिक पीड़ा है , सामाजिक विसंगतियाँ हैं तथा है आम आदमी का दर्द । ये मन को सुकून देती हैं व सोचने को विवश भी करती हैं ।
 
कहीं अल्फ़ाज़ सारे खो गये हैं ,
तभी ख़ामोश लब सब हो गये हैं ।
 
शायर का दर्द दर्शाती एक ग़ज़ल का शेर देखिए —
 
किसे हम दास्ताँ अपनी सुनायें,
कि अपना मेहरबाँ किसको बनायें ।
 
शायर ज़माने को आगाह भी करता है —
 
नया दोस्त कोई बनाने चले हो,
फिर इक ज़ख़्म सीने पे खाने चले हो ।
 
लोग भला किसके सगे हुए हैं , यह बात शायर बख़ूबी जानता है —
 
हमको ले डूबे ज़माने वाले,
नाखुदा ख़ुद को बताने वाले ।
 
समाज में व्याप्त विसंगतियों की ओर इशारा देखिए —
 
कैसे कैसे नसीब देखे हैं ,
पैसे वाले ग़रीब देखे हैं ।
 
फिर भी शायर आशा का दामन थामे हुए है —
 
दिल पे अपने लिख दी हमने तेरे नाम ग़ज़ल ,
जब नहीं आते हो आ जाती हर शाम ग़ज़ल ।
 
निराश मानव को शायर का सुझाव है —
 
हल तलाशें सभी सवालों का ,
है यही रास्ता उजालों का ।
 
शायर की पूँजी उसका अपना स्वाभिमान है —
 
सबसे पहले आपकी बारी ,
हम न लिखेंगे राग दरबारी ।
 
ज़िंदगी क्या है, देखिए —
 
मुश्किलों का नाम है ये ज़िंदगी ,
दर्द का इक जाम है ये ज़िंदगी ।
 
भौतिकतावादी इस युग की सच्चाई भी क्या ख़ूब है —
 
सभी कुछ था मगर पैसा नहीं था ,
कोई भी अब तो पहला-सा नहीं था ।
 
मतलबपरस्त सरकार पर शायर का प्रश्नचिन्ह देखिए —
 
सरकार है ,बेकार है , लाचार है ,
सुनती नहीं जनता की हाहाकार है ।
 
राजनेताओं पर आरोप लगाता हुआ शायर कह उठता है —
 
तुम बताओ है कहीं ऐसा जहाँ ,
राजनेता दर्द को समझे कहाँ ।
 
सचाई की राह ही जीवनोपयोगी होती है । बक़ौल शायर -
 
पथ पर सच के चला हूँ मैं ,
जैसा अच्छा - बुरा हूँ मैं ।
 
हमें विश्वास का आँचल नहीं छोड़ना चाहिए —
 
उन्हें मिल ही जाते हैं इक दिन किनारे ,
जो रहते नहीं नाखुदा के सहारे ।
 
 सभी ग़ज़लें ख़ूबसूरत बन पड़ीं हैं । इनकी छांव मन को सुकून देती हैं । नज़्मों में भी ग़ज़लों जैसी ही रवानी है ।
 
’ बेचैनी’ से —
पढ़कर रोज़ ख़बर कोई ,
मन फिर हो जाता है उदास ।
 
 ‘ क्या हो गया ’ में सच का दर्द देखते चलिए —
 
मत ये पूछो कि क्या हो गया ,
बोलना सच ख़ता हो गया ।
 
एक साफ़-सुथरे संग्रह के लिए शायर डॉ. लोक सेतिया को ख़ूब सारी बधाइयाँ । हिंदी ग़ज़ल में कृति का खुलेमन से स्वागत होना चाहिए ।
 
कृति : फलसफ़ा-ए-ज़िंदगी 

शायर : डॉ. लोक सेतिया
 
प्रकाशक : श्वेतवरणा प्रकाशन, दिल्ली
 
पृष्ठ : 168
 
मूल्य :₹200

26 जनवरी 2022
 
समीक्षक संपर्क फोन नंबर -  +91 92104 - 56666  
 



1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

सुंदर समीक्षा👌👍