संवेदनहीन प्रशासन-सरकार , निष्क्रिय समाज ( चिंतनजनक हालात )
आलेख : डॉ लोक सेतिया
धरती का रस ( नीति कथा )
एक
बार इक राजा शिकार पर निकला हुआ था और रास्ता भटक कर अपने सैनिकों से बिछड़
गया । उसको प्यास लगी थी , देखा खेत में इक झौपड़ी है इसलिये पानी की चाह
में वहां चला गया । इक बुढ़िया थी वहां , मगर क्योंकि राजा साधारण वस्त्रों
में था उसको नहीं पता था कि वो कोई राह चलता आम मुसाफिर नहीं शासक है उसके
देश का । राजा ने कहा , मां प्यासा हूं क्या पानी पिला दोगी । बुढ़िया ने छांव
में खटिया डाल राजा को बैठने को कहा और सोचा कि गर्मी है इसको पानी की जगह
खेत के गन्नों का रस पिला देती हूं । बुढ़िया अपने खेत से इक गन्ना तोड़ कर
ले आई और उस से पूरा गलास भर रस निकाल कर राजा को पिला दिया । राजा को बहुत
ही अच्छा लगा और वो थोड़ी देर वहीं आराम करने लगा । राजा ने बुढ़िया से पूछा
कि उसके पास कितने ऐसे खेत हैं और उसको कितनी आमदनी हो जाती है । बुढ़िया ने
बताया उसके चार बेटे हैं और सब के लिये ऐसे चार खेत भी हैं । यहां का राजा
बहुत अच्छा है केवल एक रुपया सालाना कर लेता है इसलिये उनका गुज़ारा बड़े
आराम से हो जाता है । राजा मन ही मन सोचने लगा कि अगर वो कर बढ़ा दे तो उसका
खज़ाना अधिक बढ़ सकता है । तभी राजा को दूर से अपने सैनिक आते नज़र आये तो राजा
ने कहा मां मुझे इक गलास रस और पिला सकती हो । बुढ़िया खेत से एक गन्ना तोड़
कर लाई मगर रस थोड़ा निकला और इस बार चार गन्नों का रस निकाला तब जाकर गलास
भर सका । ये देख कर राजा भी हैरान हो गया और उसने बुढ़िया से पूछा ये कैसे हो
गया , पहली बार तो एक गन्ने के रस से गलास भर गया था । बुढ़िया बोली बेटा ये
तो मुझे भी समझ नहीं आया कि थोड़ी देर में ऐसा कैसे हो गया है । ये तो तब
होता है जब शासक लालच करने लगता है तब धरती का रस सूख जाता है । ऐसे में
कुदरत नाराज़ हो जाती है और लोग भूखे प्यासे मरते हैं जबकि शासक लूट खसौट कर
ऐश आराम करते हैं । राजा के सैनिक करीब आ गये थे और वो उनकी तरफ चल दिया था
लेकिन ये वो समझ गया था कि धरती का रस क्यों सूख गया था ।
संवेदनहीन प्रशासन-सरकार , निष्क्रिय समाज ( चिंतनजनक हालात ) आलेख : डॉ लोक सेतिया
बात की शुरुआत इक नीति कथा से करना सार्थक प्रयास है आधुनिक काल में संदर्भ को उचित ढंग से समझने को । हम खुद को विश्व का सब से बड़ा लोकतंत्र होने पर गर्व अनुभव करते हैं लेकिन वास्तव में राजनीति प्रशासन की ख़ुदग़र्ज़ी और अपने कर्तव्यों की अवेहलना और अधिकारों का मनमाने ढंग से उपयोग करने की आदत से समाज कल्याण को दरकिनार कर संविधान की भावनाओं से खिलवाड़ किया गया है । संक्षेप में कुछ बातों पर विचार करते हैं , सरकारी अधिकारी कर्मचारी देश राज्य की नियम कायदे कानून की शपथ लेते हैं शुद्ध अंतकरण से कर्तव्य निभाने की जबकि शायद ही उनको ईमानदारी से जनता की समस्याओं का समाधान करने की मंशा होती है । पुलिस प्रशासन का तौर तरीका मनवीय संवेदनाओं से रहित और शासक बन कर जनता से अशोभनीय आचरण करने का दिखाई देता है , कहने को जनता के सेवक हैं लेकिन खुद को देश का मालिक मानते हैं । कायदे कानून न्यायपूर्ण नहीं बल्कि जनता को इक ऐसे जाल में उलझाने को बनाते हैं जिस से सरकारी अधिकारी कर्मचारी मनमाने ढंग से सरकारी लूट से खज़ाना भरने के साथ खुद भी अपने हित साधने का कार्य कर सकें । अजीब बात है कि नागरिक पर कड़ाई से नियम लागू करने वाले खुद जिस भी विभाग में कार्यरत होते हैं अपने लिए कोई कड़ाई नहीं लागू करते हैं । अधिकांश उनके सही कार्य नहीं करने पर परेशानी जनसाधरण को होती है ।
राजनेताओं की बात बाद में पहले सरकारी प्रशासनिक लोगों की वास्तविकता पर नज़र डालते हैं । बड़े बड़े विकसित अधिकांश देशों में औसत सरकारी कर्मचारी का वेतन औसत नागरिक की आमदनी से दो से पांच गुना होता है जबकि हमारे देश में ये अंतर बीस से तीस गुना है , अर्थात साधरण नागरिक से इतना अधिक वेतन मिलने पर भी उस जनता के लिए न्यायोचित तरीके से फ़र्ज़ निभाना नहीं चाहते हैं । अधिकांश लोग सत्ताधारी राजनेताओं की कठपुतली बनकर चाटुकारिता कर जनहित विरोधी कार्य करने में संकोच नहीं करते हैं । ख़ास लोगों के लिए जो कार्य आसानी से झटपट होते हैं आम नागरिक के लिए उस के लिए एड़ी चोटी एक करनी पड़ती है और अक़्सर घूसख़ोरी का आश्रय लेने को विवश होना पड़ता है । शिक्षित होकर भी उनका विवेक नहीं जागृत होता जब अनावश्यक साधारण ख़ामी को बहाना बना उन पर अनुचित और अन्यायकारी दंड जुर्माना लगाते हैं , जबकि ख़ास लोगों के बड़े अपराध तक कानून बदल कर सज़ा से बचाते रहते हैं । आपने कभी सोचा है जितने भी घोटाले देश में होते रहते हैं उन को बिना किसी आई ए एस अथवा ऐसे आला अधिकारी की अनुशंसा योजना में संभव नहीं हो सकता है क्योंकि कोई भी मंत्री मुख्यमंत्री क्या देश का प्रधानमंत्री तक खुद कार्यपालिका का कार्य नहीं कर सकता है । जब तक देश का प्रशासन ईमानदारी से काम करता रहा देश की सामाजिक दशा सुधरती रही थी मगर जब से भ्र्ष्टाचार का वातावरण बढ़ता गया है देश समाज की हालत बिगड़ती जा रही है ।
अब राजनीति की बात करते हैं , कोई भी नेता कोई भी राजनीतिक दल सही में देश और जनता के कल्याण और समाज की भलाई जनता की समस्याओं की चिंता नहीं करता है , सभी को सत्ता हासिल कर खुद अपने लिए राजसी ठाठ और शानो शौकत अधिकार सुविधाएं पाकर शानदार जीवन चाहिए । त्याग की जनसेवा की देशभक्ति की राजनीति का अंत हो चुका है । कैसी विडंबना है कि जिनको लोग प्रतिनिधि चुनते हैं वही खुद को जनता का मालिक ही नहीं समझने लगते बल्कि जनता को भीख देने की बातें करने लगे हैं , जनता का पैसा जनता पर खर्च करना किसी राजनेता का उपकार नहीं होता है , क्या ये सभी अपनी व्यक्तिगत पूंजी से अथवा पारिवारिक विरासत से ये बांटते हैं । असलियत बिल्कुल उलटी है सांसद विधायक बनकर देश की आधी संपत्ति उन्होंने हथिया ली है या कुछ अमीर उद्योगपतियों धनवान लोगों के हवाले कर दी है । ऐसा लगता है जैसे देश की राजनीति लूटने का इक माध्यम बन गई है । 80 करोड़ लोग अगर सरकारी मुफ्त अनाज पर रहते हैं तो देश की आज़ादी के 77 साल बाद ये विकास नहीं विनाश की अर्थव्यवस्था है जिस में बीस तीस प्रतिशत को सभी कुछ मिलता है 70 प्रतिशत को और गरीब बनाकर ।
आखिर में न्याय की बात करना कठिन है , लगता ही नहीं वास्तव में किसी को सभी को समान न्याय मिलने की आवश्यकता की चिंता भी है । अंधेर नगरी चौपट राजा जैसी बात है । लेकिन असली समस्या कुछ और है देश की जनता की निष्क्रियता सब से चिंताजनक बात है । सामने मतलबी लोग देश को बर्बाद कर किसी गहरी खाई में धकेल रहे हैं सत्ताधारी विपक्षी सभी मिलकर जनता को कोई खिलौना समझ खेल रहे हैं । कुछ भी गंभीर विषय पर चिंतन नहीं सिर्फ और सिर्फ कुर्सी के लिए पागल हैं हर घड़ी उनके किरदार बदलते हैं । कोई विचारधारा नहीं फायदे का सौदा गठबंधन कर चुनावी खेल में काठ की तलवारों की बनावटी जंग लड़ते हैं बाद में सभी एक हैं लेकिन साथ नहीं विरोध नहीं शतरंज की बिसात पर शह मात की बाज़ी लगाते हैं । ये पुराना खेल है जागीरदारों का बड़े रुतबे वाले खानदानी रईस लोगों का । संविधान को लगता है जैसे इक हथियार समझ लिया है जब जैसे उपयोग करते हैं । राजनेता और प्रशासक जनता का उपहास करते रहते हैं लेकिन हम क्या अपमानित महसूस करते हैं लगता नहीं । सोशल मीडिया पर नेताओं पर कॉमेडी करते वीडियो रील संदेश से मनोरंजन करना नासमझी है , ये गंभीर विषय है सिर्फ हंसी उड़ाने मज़ाक करने से कुछ असर नहीं होने वाला है । दुष्यन्त कुमार कहते हैं , देख दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली , ये ख़तरनाक़ सचाई नहीं जाने वाली । आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा , चंद ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली । लगता है देश समाज की बर्बादी के खामोश तमाशाई बन गए हैं सभी लोग । उस पर कोई गांधी कोई जयप्रकाश नारायण कहीं दिखाई नहीं देता , खुद हमको भगत सिंह बनना होगा इन से देश को आज़ाद करवाना है जिनको गुमान है कि देश उनके भरोसे है उनके रहमो- करम पर है ।
अपनी कायरता को छोड़ कर लोकतंत्र को बचाना होगा हमको फिर से वही उदघोष लगाना होगा जो खुद को भगवान समझ बैठे उनको धरती पर लाना होगा देश हमारा है किसी की जागीर नहीं बतलाना होगा दिनकर की कविता दोहराकर जनता को ताज पहनाना होगा ।
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है ( कविता ) रामधारी सिंह दिनकर
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी ,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है ;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो ,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।
जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही ,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली ,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली ।
जनता? हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम ,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है । "
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है ? "
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ? "
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं ,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में ;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में ।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं ,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है ;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो ,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती ,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है ,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां ?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है ।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं ।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा ,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं ,प्रजा का है ,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो ।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख ,
मन्दिरों , राजप्रासादों में , तहखानों में ?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे ,
देवता मिलेंगे खेतों में , खलिहानों में ।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं ,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है ;
दो राह ,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो ,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।
1 टिप्पणी:
नीति कथा से शुरू हुआ लेख...जनता और कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच की खाई को बताता है राजनीति तक गया👍👌
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