अक्तूबर 09, 2024

POST : 1904 उल्टी हो गईं सब तदबीरें ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

       उल्टी हो गईं सब तदबीरें  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

इस से पहले कि मैं विषय की चर्चा शुरू करूं ये स्वीकार करना ज़रूरी है कि देश की दलीय राजनीति की मुझे समझ नहीं है बल्कि मेरी जानकारी है कि संविधान में किसी दलीय व्यवस्था की बात नहीं है संसद अथवा विधानसभाओं में जिस भी योग्य व्यक्ति को अधिकांश सदस्य अपना नेता चुनते हैं उसे सत्ता का अधिकार हासिल होता है लोकतांत्रिक ढंग से संविधान का पालन करते हुए शुद्ध अंतकरण से । चुनाव आयोग ने सभी राजनैतिक दलों से विचार विमर्श कर जिस चुनावी प्रणाली को अपनाया कभी किसी ने सवाल नहीं उठाया कि सामन्यतया उस से वास्तविक जनता के वोटों का बहुमत हासिल नहीं होता है । तब भी मान लिया गया जिसको सबसे अधिक लोग वोट देकर चुनते हैं उसे सभी पूर्ण जनता का प्रतिनिधि समझ लिया करेंगे । पर हुआ ये कि पहला तो राजनैतिक दलों में कुछ किसी तरह से मालिक जैसा अधिकार प्राप्त कर अन्य तमाम सदस्यों को अपने से छोटा ही नहीं बल्कि अपना गुलाम समझ कर चौधरी बनकर उन पर अपना हुक्म और हुकूमत चलाने लगे । कुछ लोग अलग अलग जगह अपना इक राजनीतिक दल गठित कर तकदीर आज़माने लगे और सत्ता में हिस्सेदारी पाने लगे लोग उधर से इधर जिधर चाहा जब भी उधर आने लगे जाने लगे और कुछ उनकी कीमत घटाने बढ़ाने लगे । लेकिन राजनीति के अंगने में अखबार टीवी चैनल सोशल मीडिया वाले अपनी टंगड़ी अड़ाने लगे और चुनाव में अपना दखल करने की खातिर खबरों का बाज़ार सजाने लगे किसी को कैसा किसी को कैसा साबित कर चुपड़ी हुई खाने लगे , अपने को नहीं समझने वाले दुनिया को क्या क्या समझाने लगे हवाओं का रुख समझने लगे बनकर माझी पकड़ पतवार कश्ती को मझधार से बचाएंगे कह कर नाख़ुदा खुद को बताने लगे । 
 

हमको ले डूबे ज़माने वाले ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमको ले डूबे ज़माने वाले
नाखुदा खुद को बताने वाले ।
 
आज फिर ले के वो बारात चले 
अपनी दुल्हन को जलाने वाले ।

देश सेवा का लगाये तमगा
फिरते हैं देश को खाने वाले ।

ज़ालिमों चाहो तो सर कर दो कलम
हम न सर अपना झुकाने वाले ।

हो गये खुद ही फ़ना आख़िरकार 
मेरी हस्ती को मिटाने वाले । 
 
एक ही घूंट में मदहोश हुए 
होश काबू में बताने वाले । 
 
उनको फुटपाथ पे तो सोने दो
ये हैं महलों को बनाने वाले ।

काश हालात से होते आगाह 
जश्न-ए-आज़ादी मनाने वाले । 
 
तूं कहीं मेरा ही कातिल तो नहीं
मेरी अर्थी को उठाने वाले ।

तेरी हर चाल से वाकिफ़ था मैं
मुझको हर बार हराने वाले ।

मैं तो आइना हूँ बच के रहना
अपनी सूरत को छुपाने वाले ।

ऐसे तमाम  खुद को सबसे जानकर समझदार मानने वालों को लगा कि देश में चुनाव आयोग की क्या ज़रूरत है । जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रिंट मीडिया सोशल मीडिया पल पल की खबर ज़र्रे ज़र्रे की रखते हैं तो ये काम उन पर छोड़ दिया जाना चाहिए । राजनेताओं को भी लगा ये उनका सहारा बन सकते हैं इसलिए उन्होंने ऐसे लोगों को ठेके पर चुनावी सर्वेक्षण से कितना कुछ पता करने का कार्यभार सौंप दिया जिस से कितने ही लोग नाम शोहरत धन दौलत कमाने लगे और अपना महत्व बनाने लगे बंदर बिल्लियों को बराबर बराबर करने में खुद ही रोटी खाने लगे । भाईचारा सबसे बनाने लगे आधे उनकी तरफ आधे इनकी तरह जाने लगे भूखी नंगी प्यासी जनता की तरफ कोई भी नहीं जाता ये सभी दूध मलाई खाकर अपनी तोंद बढ़ाने लगे । राजनेता टीवी चैनल पर नज़र आने लगे खबर वाले असली खबरों से नज़र चुराने लगे क्या क्या नाम से कार्यक्रम टीवी शो बहस की काठ की तलवारों की जंग से दर्शकों को उल्लू बनाने लगे । चोर चोर मौसेरे भाई की कहावत पीछे छूट गई ये दोस्ती रिश्ते दुश्मनी सब इक साथ कैसे करते हैं ग़ज़ब ढाने लगे । ये इक प्रदेश की जनता के दिल को नहीं भाया जब सभी सोशल एल्क्ट्रॉनिक प्रिंट मीडिया वालों ने इक स्वर में अलाप लगाया किसी दल को पूर्ण बहुमत का नतीजा सुनाया , लोगों को इसका जवाब ठीक समझ आया जिसको हार रहा बताते थे वो सभी उसी का परचम लहराया , बड़बोलों को मज़ा चखाया । 
 
आखिर इक प्रदेश की जनता ने अपनी अहमियम समझाई राजनेताओं दलों सर्वेक्षण से एग्जिट पोल करने वाले सभी को उनकी सूरत दिखाई । ये क्या हुआ क्या कयामत ढाई बौने सभी साबित हुए सिर्फ लंबी दिखती थी उनकी परछाई । जो खुद को मालिक समझ बैठे थे उनको औकात दिखलाई डॉलर बने फिरते थे बना दिया धेला पाई । बात किसी को भी समझ नहीं आई जनता नहीं होती है सबकी भौजाई सभी की अकल ठिकाने लगाई नहीं चलेगी आपकी चतुराई । जनता ने देखी नेताओं से मीडिया वालों की बेहयाई सबसे दूरी खूब बनाई लेकिन शर्म किसे कब आई । कभी राजनीति हुआ करती थी न्याय की समानता की शोषित वर्ग की लड़ना लड़ाई जो बन चुकी है सत्ता की खातिर हाथापाई । जनता को वास्तविकता जब समझ आई उन सबको है कुर्सी मनभाई कोई नहीं चाहता समाज की भलाई । शराफ़त छोड़ सभी बने है लुटेरे देश में बढ़ने लगे हैं कितने अंधेरे घनेरे नहीं कोई भी आदर्शवादी सब चाहते मनमानी की आज़ादी जनता की किस्मत में सिर्फ बर्बादी । लोग हमेशा होते सयाने कोई माने या नहीं माने हाल हुआ है घर नहीं हैं दाने नेता चले जनता को बहलाने चुनाव बाद भुनाएंगे दाने खुद नहीं खाने सबको हैं खिलाने । समझ गए हैं लोग सियासत की चालाकी नहीं अब जनसेवा रही है बाक़ी कैसी मदिरा कैसा साक़ी हर दिन उनकी गुंडागर्दी की नज़र आती है झांकी चाहे हो किसी भी दल का कोई राजनेता अपराधी से मिल सब कर लेता । एक एक कर सबको धूल चटानी है जनता ने भी आखिर ठानी है । बड़े बड़े आलीशान महलों की बुनियाद हिलाई है जनता ने अपनी ताकत नेताओं को दिखलाई है ठोकर लगाने वाले आम जनता को कहने लगे रुला देती है जनता बड़ी हरजाई है । इक बात याद आई है , राजनीति की अजब कहानी है सत्ता चोरों की नानी है उनकी प्यास उन्हीं का पानी है । आज़माया हर तौर तरीका नेता कोई नहीं ईमानदारी से जीना सीखा उनकी ऊंची ऊंची दुकानों का हर पकवान ही है फ़ीका ।  कुछ शेर शायर , मीर तक़ी मीर की ग़ज़ल से  अंत में पेश हैं । 
 
उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया  
देखा इस बीमारी-ए -दिल ने आख़िर काम तमाम किया । 

नाहक़ हम मज़बूरों पर ये तोहमत है मुख्तारी की 
हम से जो पहले कह भेजा सो मरने का पैग़ाम किया । 


 

मीर तकी मीर, वो शायर जिसके शेर सुनकर ग़ालिब भी दंग रह जाते थे - The  Lallantop


1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

Wah...👌👍 जनता होती नहीं...भौजाई...

सर एक सुझाव है पंक्ति दर पंक्ति तुक मिलाने से लेख की गम्भीरता कहीं गुम सी होने लगती है। लेख कुछ कुछ मुनादी की तरह लगने लगता है। सादर