फेसबुक व्हाट्सएप्प का तराज़ू ( बद अच्छा बदनाम बुरा )
डॉ लोक सेतिया
पहले रग रग से मेरी खून निचोड़ा उसने ,
अब ये कहता है कि रंगत ही मेरी पीली है ।
मुज़फ़्फ़र वारसी ।
अपने गिरेबान में नहीं झांकते वर्ना चुल्लू भर पानी में डूब मरते , क्या हाल बना दिया है फेसबुक की बात मत पूछो गंदगी परोसते हैं लाज शर्म को छोड़ कर । अब जब मुझे व्हाट्सएप्प ने स्पैम घोषित किया तो समझ नहीं आया कि माजरा क्या है । कोई बेहूदगी की बात नहीं कोई अभद्रता की भाषा नहीं संदेश भेजता रहा सिर्फ सामाजिक सरोकार और झूठ और सच का अंतर समझने को । अपने इतने लोगों को संदेश भेजा क्या ये गुनाह है लोग अंधकार मिटाने को कितने चिराग़ जलाते हैं और ये जो सोशल मीडिया पर अंधेर मचा रहे हैं मनमाने ढंग से निर्णय कर सकते हैं । उनका अपराध नहीं है उनको समझ ही नहीं किस बात का अर्थ क्या है महत्व कितना है । लेकिन इन आधुनिक युग के धनपशुओं को पैसे की भाषा के बिना कुछ भी नहीं आता है । देश समाज विश्व का भला बुरा ये उनकी सोचने की बात ही नहीं उनको अपना धंधा बढ़ाना है किसी भी तरह से आमदनी चाहिए भले जिन्होंने उन पर भरोसा किया उनकी जानकारी बेच कर या विज्ञापन से ठगी का माध्यम बन कर ।
आपको क्या लगता है अगर ये सब नहीं होंगे तो हमारा जीवन दुश्वार बन जाएगा या फिर उल्टा ही है इन आधुनिक संचार माध्यमों का अनुचित और अत्यधिक उपयोग करने से हमने सोचना समझना छोड़ दिया है और ऐसे लोगों के भरोसे सब छोड़ दिया है जिनको सही गलत उचित अनुचित का भेद नहीं मालूम बल्कि तमाम नैतिकता के मूल्यों को तार तार कर रहे हैं । हमने भूल की है इन पर इतना आश्रित हो गए हैं कि बगैर सोशल मीडिया खुद को बेबस समझने लगते हैं जबकि वास्तविकता इस के विपरीत है । काश हम इनको छोड़ कर कुछ सोचते समझते कुछ सार्थक विमर्श करते समय की बर्बादी नहीं करते । सच तो ये है कि इनसे हमको कुछ भी अच्छा नहीं मिला बल्कि हमारी सोचने परखने की क्षमता कुंद हो गई है । हम भूल गए हैं कि हमारे पूर्वज इन सब के बिना कितने महान विद्वान और विवेकशील हुआ करते थे और बगैर किसी शोर तमाशे के देश समाज को बेहतर बनाते रहे और बदलाव करते रहे । जबकि आजकल हम कहने को दौड़ रहे हैं लेकिन वास्तव में हम कोल्हू के बैल की तरह उसी सिमित दायरे में घूमते रहते हैं , सोशल मीडिया का ज्ञान किसी छल से कम नहीं मगर हमने अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है और दोस्तों फॉलोवर्स की झूठी संख्या से खुद को लोकप्रिय समझते हैं जबकि उन सभी का अभिप्राय कुछ और होता है ।
कभी विचार किया है कि इन सभी ने आदमी को आदमी की तरह नहीं किसी बेजान मशीन की जीने को विवश कर दिया है । मानवीय संवेदना रहित समाज बनता जा रहा है जिस में भावनाओं का रत्ती भर भी महत्व नहीं समझा जाता है । विज्ञान विकास जब मानवता की भलाई करे तभी उचित है लेकिन जब बंदूक तोप हथियार और बंब विध्वंसक साज़ो सामान बनाते हैं तो हैवानियत को बढ़ावा मिलता है । भारत देश की संस्कृति और सभ्यता या पुरातन परंपरा जिस का हम शोर मचाते हैं ऐसा करने को कभी स्वीकार नहीं कर सकता है । इक बात सभी जानते हैं कि किसी भी चीज़ का नशा अच्छा नहीं होता है और ये सोशल मीडिया की झूठी चमक दमक तो समाज को भटका रहे हैं । इनकी आवश्यकता कम है उपयोगिकता की सीमा तक ठीक है अन्यथा समय ऊर्जा ही नहीं सामाजिक संसाधनों की भी बर्बादी है । आजकल ये किसी बंदर के हाथ में उस्तरा होने जैसी चिंताजनक हालत है । कभी ध्यान से देखना आपको इंसान कम बंदर अधिक दिखाई देंगे यहां पर , बंदरों की आदत सभी जानते हैं , टोपी वाले की कहानी याद है जो भी किसी को करते देखता है नकल करने लगता है । आदमी पहले बंदर था कि नहीं कहना कठिन है लेकिन सोशल मीडिया ने इंसान को बंदर बनने पर विवश ज़रूर कर दिया है । कभी बंदर की तरह कभी कुत्ते की तरह कभी लोमड़ी कभी गिरगिट कभी मगरमच्छ की तरह दिखाई देते हैं । कई लोग तो किरदार बदलते क्षण भर भी नहीं लगने देते हैं । आदमी का आदमी बनकर रहना आसान नहीं इस युग में ।
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