मार्च 04, 2024

इश्तिहाऱ बन गए हैं जनाब ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      इश्तिहाऱ बन गए हैं जनाब ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

क्या से क्या हो गया , बेवफ़ा तेरे प्यार में । सत्ता की कुर्सी भी गाइड फ़िल्म की नर्तकी जैसी है जनाब उसकी ख़ातिर कुछ भी बन सकते हैं । रोज़ लिबास की तरह किरदार बदलते हैं दिल की बात छोड़ो सरकार हैं जब चाहे दिलदार बदलते हैं । घर बार परिवार की बात क्या उनकी अलग बात है खूबसूरत सपने दिखला कर सोचते हैं दुनिया बदलना छोड़ अख़बार टीवी पर पुराना इश्तिहाऱ बदलते हैं । गुलामों की मंडी के हैं इक वही सिकंदर कोई ताज बनाते हैं सरताज़ बदलते हैं लोकतान्त्रिक तौर तरीके बदल डाले हैं इस बार इरादा है ऐतबार नहीं करते ऐतबार बदलते हैं कुछ दोस्त नहीं ज़रूरत जिनकी दामन छुड़ा मतलब की दोस्ती करते हैं दुश्मन से यार बनाते सब यार बदलते हैं । हम लोग तमाशा पसंद स्वभाव वाले हैं हर किसी का तमाशा देख खुश होते हैं लेकिन जब इक दिन खुद ही तमाशा बन जाते हैं तो हैरान परेशान होते हैं । ऐसा जादूगर कभी नहीं देखा पहली बार जितने भी तमाशाई हैं खुद अपने आप को जमूरा कहलाना गर्व की बात समझते हैं । कल उनके आका तालियां बजवाने को अजीब पागल जैसे करतब दिखलाएं तो सभी अपने आप को पागल मैं भी साबित करने लग सकते हैं । सोशल मीडिया पर खुद को जो भी घोषित करने का अर्थ वो कार्य करना नहीं होता है , विज्ञापन या इश्तिहाऱ की विशेषता यही है उनको खरा साबित नहीं करना पड़ता सिर्फ दावा करना होता है । अपने आप को सर्वश्रेष्ठ घोषित करना वास्तव में कोई महान कार्य नहीं होता बल्कि कहावत है कि बड़े बढ़ाई ना करें बड़े ना बोलें बोल , रहिमन हीरा कब कहे लाख टका मेरो मोल । 
 
बड़बोला होना कोई गुण नहीं समझा जाता है , इक कवि की कविता है जिस में कवि कहता है कि बौने किरदार वाले लोग पर्वत की चोटी पर चढ़ कर समझते हैं कि उनका रुतबा उनका क़द बढ़ गया है जबकि वास्तव में वो और भी बौने दिखाई देते हैं । बड़ी बड़ी बातों से कोई महान नहीं बनता है महान नायक वही कहलाते हैं जो बड़ी सोच और ऊंचे आदर्श की कसौटी पर खरे उतरते हैं सादा जीवन और आचरण से इक कीर्तिमान स्थापित करते हैं । विज्ञापन की दुनिया चमकीली लुभावनी शानदार आकर्षित करती प्रतीत होती है जबकि ये झूठ बनावट धोखा और कपट से बुना इक जाल होता है । जनाब का नया इश्तिहाऱ भी परिंदों को पकड़ने और उनके परों को काट कर अपने स्वार्थ के पिंजरे में कैद करने की चाल है । ज़माना बदल गया है लोग अब समझने भी लगे हैं राजनीति की चालों को और नेता बचने लगे हैं जवाब नहीं दे सकते जीना उन सभी सवालों से । जनाब से सवालात करना मना है मगर कभी कोई सवाल दागता है तो सरकार जवाब नहीं देते सवाल के बदले इश्तिहाऱ की तरह ब्यान देते हैं । मैं इश्तिहाऱ हूं आप सभी मेरा इश्तिहाऱ   हैं , भरी सभा से कहलवाते हैं सभी कहो आप सब मेरे इश्तिहाऱ हैं , और चाटुकार इश्तिहाऱ   बन कर गौरव का अनुभव करते है ।  आख़िर में अपनी ग़ज़ल संग्रह की किताब ' फ़लसफ़ा ए ज़िंदगी ' से इक ग़ज़ल पेश है ।

अब लगे बोलने पामाल लोग 
देख हैरान सब वाचाल लोग ।
 
कौन कैसे करे इस पर यकीन 
पा रहे मुफ़्त रोटी दाल लोग ।

ज़ुल्म सहते रहे अब तक गरीब 
पांव उनके थे हम फुटबाल लोग ।

मुश्किलों में फंसी सरकार अब है
जब समझने लगे हर चाल लोग ।

कब अधिकार मिलते मांगने से
छीन लेंगे मगर बदहाल लोग ।

मछलियां तो नहीं इंसान हम हैं  
रोज़ फिर हैं बिछाते जाल लोग । 

कुछ हैं बाहर मगर भीतर हैं और
रूह "तनहा" नहीं बस खाल लोग । 
 
पामाल =  दबे कुचले  
वाचाल = बड़बोले





               

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