छाई हुई घटा घनघोर है ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया
चोर सबको कहता लुटेरा अजब तौर है ,
देश की सियासत का यही नया दौर है ।
अब अंधेरे उजालों को समझाने लगे हैं
बंद आंखों से देख समझो हो गई भौर है ।
सबको ये तमाशा लाज़मी देखना होगा
हम्माम में सभी नंगे है ये तो हर ठौर है ।
इक पहेली है सच क्या और झूठ क्या
लबों पर है कुछ दिल की बात और है ।
हमने इरादा किया बनाएंगे राह इक नई
फुर्सत मिले सोचते हैं काबिल ए गौर है ।
शहंशाह को भूख है जो मिटती ही नहीं है
छीन लो गरीबों से हाथ अगर इक कौर है ।
उनका दस्तूर है सब परस्तिश उनकी करें
उनकी मर्ज़ी जो चाहें वही ख़ुद सिरमौर है ।
खुद मसीहा है हर गुनाह उसका मुआफ़ है
जो है उसका मुख़ालिफ़ शख़्स वो चोर है ।
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