ज़ालिम को फ़रिश्ता कहना है ( व्यंग्य-कहानी ) डॉ लोक सेतिया
घोषणा करता हूं ये वास्तविक कहानी है कोई कपोल कल्पना नहीं , अक्सर फ़िल्म वाले अलग ढंग से बताते हैं , ये काल्पनिक कथा है किसी से सरोकार नहीं घटना का । वास्तव में असली बात सच को झूठ से मिला कर पेश करते हैं अभिनय करने वाले लोगों का नाम तौर तरीका पहनावा सब किसी किरदार से मिलता जुलता है । दर्शक वही समझते हैं जो निर्देशक चाहता है समझाना , यहां नाम चेहरे नहीं मिलते लेकिन किरदार असली हैं हमारी वास्तविक दुनिया वाले । बात की शुरुआत करते हैं आधुनिक युग की असलियत को जानते समझते हुए कि शराफत ईमानदारी सच्चाई आत्मा की आवाज़ नैतिक मूल्य बड़े आदर्श आजकल बेकार की बातें समझी जाती हैं किताबी और उपदेश देने को अमल करने को हर्गिज़ नहीं । इस कहानी को इक निर्माता-निर्देशक की तलाश है ।
शोर ही शोर है चहुंओर है चोर नहीं है चौकीदार है ज़रा मुंहज़ोर है । मनमौजी है शाही लिबास है दुनिया भर में वही सबसे ख़ास है । सिंघासन पर बैठा अंधेरा है रौशनी उसी के पास है । उसका बड़ा नाम है , ऊंचा सबसे दाम है , दुनिया सब बेनाम है , जाने कौन गुमनाम है अनजान है , फिर भी निराली शान है। लंगड़ा उसका घोड़ा है दौड़ा दौड़ा दौड़ा है जिसके हाथ में लाठी है भैंस उसी की हो जाती है । सब कुछ जिसने तोड़ा है साबुत कुछ नहीं छोड़ा है उसका बड़ा कमाल है बेचा घर का सारा माल है उसका शौक निराला है तन गोरा है मन काला है । तिजोरी का रखवाला है खुल जा सिम सिम का ताला है अलीबाबा चालीस चोर है हिजाब है न कोई नकाब है बेहिसाब सब हिसाब है । उसका बही-खाता है जो मसीहा उसको बताता है मनचाही मुराद पाता है । घर फूंक तमाशा देखने वाला इस कहानी पर फिल्म बना सकता है पटकथा तैयार है ये सिर्फ इक छोटा सा दृश्य है जैसे इक इश्तिहार है ।
कहानी का नायक मसीहा कहलाता है ज़ुल्म भी करता है तो लोग आह नहीं भरते वाह-वाह करते हैं । ग़ज़ल पेश है :-
मैं कहूं यह बात तो किस बहर में।
नाव तूफां से जो टकराती रही
वो किनारे जा के डूबी लहर में।
ज़ालिमों के हाथ में इंसाफ है
रोक रोने पर भी है अब कहर में।
मर के भी देते हैं सब उसको दुआ
जाने कैसा है मज़ा उस ज़हर में।
रंक भी राजा भी तेरे शहर में ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
रंक भी राजा भी तेरे शहर मेंमैं कहूं यह बात तो किस बहर में।
नाव तूफां से जो टकराती रही
वो किनारे जा के डूबी लहर में।
ज़ालिमों के हाथ में इंसाफ है
रोक रोने पर भी है अब कहर में।
मर के भी देते हैं सब उसको दुआ
जाने कैसा है मज़ा उस ज़हर में।
मत कभी सिक्कों में तोलो प्यार को
जान हाज़िर मांगने को महर में।
अब समझ आया हुई जब शाम है
जान लेते काश सब कुछ सहर में।
एक सच्चा दोस्त "तनहा" चाहता
मिल सका कोई नहीं इस दहर में।
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