जून 14, 2021

ज़माने को बदलना चाहते ( अनसुलझी उलझन ) डॉ लोक सेतिया

 ज़माने को बदलना चाहते ( अनसुलझी उलझन ) डॉ लोक सेतिया 

मुमकिन है कोई अपना गांव शहर देश बदल किसी और जगह रहने लगे। मगर नामुमकिन है इस दुनिया ज़माने को बदलना सुबह शाम रात दिन बदलने से धरती आकाश नहीं बदलते हैं आपके चाहने से हालात नहीं बदलते हैं रिश्ते बनते बिगड़ते हैं दिल के जज़्बात नहीं बदलते हैं। इतिहास बदल जाते हैं नाम बदल जाते हैं नानक कबीर और सुकरात नहीं बदलते हैं। आदमी को अच्छा कुछ भी नहीं लगता सब कुछ बदलना चाहता है अपने आप को छोड़कर समस्या बाकी लोग सब दुनिया नहीं है आपका सोचने समझने का तरीका है जो आपको सबको उस तरह बनाना है जैसा आपको पसंद है। क्या क्या बदलोगे माता पिता भाई बहन दोस्त रिश्तेदार पति पत्नी पड़ोसी जान पहचान वाले गली मुहल्ले वाले कोई भी आपको मंज़ूर नहीं जो भी जैसा है और जब नहीं बदलते लोग आपकी ज़रूरत और चाहत से तब आप दुःखी परेशान चिंतित हो जाते हैं क्योंकि सभी अपनी नज़र से सबको देखते परखते हैं औरों के नज़रिये को कभी नहीं समझते हैं। हमारी उलझन हमारी खुद की मानसिकता है सिमित सोच है और हम समझते हैं जो हम जानते हैं सोचते हैं बस इक वही सही है संपूर्ण है। मगर हम सभी आधे अधूरे हैं बाकी सभी मिलते हैं तभी हमारी दुनिया पूर्ण होती है। अपने अपने खोखलेपन से घबराते हैं और भीतर से कमज़ोर बाहर से शक्तिशाली बनकर इतराते हैं। जीवन भर हम खुद से ही लड़ते लड़ते जीतने की उम्मीद में हारते जाते हैं हासिल कुछ नहीं होता है खुद को खो कर बाद में पछताते हैं। हम जागते हुए भी गहरी नींद में हैं खुद सोते हुए दुनिया भर को जगाते हैं। सबको जैसा है कोई स्वीकार करो बिना बदले अपनों को दिल से प्यार करो खत्म हर बहस हर तकरार करो। जीवन भर मत यही मेरे यार करो। 
 


 

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