मिट्टी जैसी ज़िंदगी ( ज़ुबां से दिल तक ) डॉ लोक सेतिया
ये आम होने का एहसास मेरा अकेले का नहीं बल्कि अधिकांश दुनिया भर के लोगों का है जिनकी कोई अलग पहचान नहीं होती है। शायद हम भी ख़ास हैं या ख़ास बन सकते थे मगर हमने कोशिश ही नहीं की आम से ख़ास बनने या होने की। हम मिट्टी के लोग मिट्टी से बनते हैं मिट्टी में मिल जाना है जान कर समझ कर खुद को हर किसी के पांव की धूल होने को स्वीकार कर लेते हैं कि यही नसीब है नियति है। सभी को आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं जब जिसको जितनी ज़रूरत होती है। हम जैसे आम लोगों से सभी मिट्टी के खिलौने की तरह मन बहलाने को खेलते हैं और खेल खेल में तोड़ देते हैं मिट्टी का खिलौना टूटने का किसी को ज़रा भी अफ़सोस होता नहीं है। जिनको मिट्टी को आग में तपाकर पकाना आता है वो कुम्हार घड़े सुराही बनानकर मिट्टी को मनचाही कीमत में बेचते हैं भट्ठे वाले ईंट बनाकर खूब कमाते हैं मिट्टी का उपयोग सभी करते हैं मिट्टी से दामन सभी बचाते हैं। ज़िंदगी की चादर सभी मैली नज़र नहीं आने देना चाहते हैं कितने उपाय करते हैं अपने लिबास को साफ़ चमकदार और बेदाग़ बनाये रखने को। जिनके नाम की शोहरत के ढोल नगाड़े बजते हैं उनकी सारी ज़िंदगी अपनी चमक बरकरार रखने और छींटों से कीचड़ से सुरक्षित रहने में कट जाती है। कच्ची मिट्टी के घड़े से नदिया पार पिया से मिलने जाना हर किसी को मुहब्बत इबादत करना नहीं आता है।
मिट्टी को छोड़ लोहा पीतल चांदी सोना सभी की कीमत होती है , सबसे महंगे दाम पत्थर बिकते हैं कभी रास्ते पर पांव की ठोकर खाने वाला पत्थर भी मूर्ति बनकर भगवान कहलाता है लोग सर झुकाते हैं आदमी भी मिट्टी का स्वभाव छोड़ जब कठोर पत्थर बन जाता है तभी हर कोई उसको पहचानता है उसका अस्तित्व समझता है। अन्यथा मिट्टी रेत बनकर उड़ती कभी कीचड़ बनकर पड़ी रहती है अनचाही चीज़ की तरह। घर में बहुत सामान ऐसा होता है जो हमेशा से रहता है उसकी ज़रूरत पड़ती है इस्तेमाल करते हैं और उसके बाद कहां रख छोड़ा कोई नहीं ध्यान रखता। फिर ज़रूरत पड़ती है तो इधर उधर यहीं कहीं मिल जाती है वस्तु कोई उसको संभालता नहीं कोई चुरा कर क्या करेगा कोई ध्यान नहीं देता भले उसके बगैर कोई कितना महत्वपूर्ण कार्य होना संभव नहीं हो। जाने कितने लोग दुनिया में इसी तरह के हैं जिनको रोज़ सभी उपयोग करते हैं उनकी जब भी ज़रूरत पड़ती है मगर उनका महत्व कोई नहीं समझता क्योंकि वो सस्ते हैं बहुतायत में मिलते हैं।
घर महल ऊंची अटालिकाएं बनाने वाले मिट्टी के बिछौने पर रहते सोते जागते मिट्टी होकर मिट जाते हैं। चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना परिंदों की तरह अपना घौंसला अपनी नगरी बनाई बसाई छोड़ जाते है किसी और आने वाले की खातिर तिनकों को बिना अपने निशां छोड़े ही। मगर ख़ास बड़े लोग वास्तव में कोई नवनिर्माण करते नहीं है किसी पर मकान ज़मीन या इमारत पर अपना नाम लिखवा समझते हैं हम अमर हो जाएंगे जबकि उन्होंने खुद दिया कुछ भी नहीं छीना हासिल किया या अधिकार जमाया होता है। यही विडंबना है यहां हर कतरा खुद को दरिया समझता है और समंदर होना चाहता है जबकि समंदर या दरिया का अस्तित्व खुद कतरों से बना है। इक पागलपन की अंधी दौड़ है जिस में तमाम लोग अपनी वास्तविक पहचान सामान्य होने को छिपाकर ख़ास होने की बनावटी पहचान ढूंढते मिट्टी से पत्थर बन जाते हैं। पेड़ पौधे पशु पंछी जानवर सबकी पहचान बचाये रखने की बात करने वाले इंसान आदमी की वास्तविक पहचान को समाप्त होने से बचाना नहीं चाहता बल्कि उसको मिटाता जा रहा है। विकास कह रहे हैं विनाश को खुद बुलाते हैं। मुझे सभी ने बहुत समझाया मगर मुझे आम से ख़ास होना नहीं आया मुझे मिट्टी बनकर रहना पसंद है पत्थरों की नगरी में पत्थर दिल होना नहीं चाहा कभी। अब उड़ने की बेला है चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना।
शायद बड़ी देर बाद समझ आया है कि हम जैसे आम लोगों ने खुद ही अपने चारों तरफ इक जाल बुना हुआ है। समाज के सारे नियम कायदे हमारे लिए हैं ख़ास बड़े लोग अपनी मर्ज़ी ज़रूरत और साहूलियत को देख कर नियम अच्छे बुरे की परिभाषा बदल लेते हैं उनका किया सितम भी एहसान कहलाता है। अपने मतलब की खातिर खराब से खराब आचरण भी करते उनको रत्ती भर अफ़सोस नहीं होता है। झूठ चालाकी जालसाज़ी या छल कपट सब इस्तेमाल कर उनको सफलता पानी होती है। शासक अधिकारी धनवान या धर्मगुरु जैसे ओहदे को पाकर उनको मनमानी की छूट ही नहीं मिलती बल्कि उनका यशोगान किया जाता है करवाया जाता है करना पड़ता है निचली पायदान पर खड़े शोषित वर्ग को किसी तरह ज़िंदा रहने उनके अन्याय अत्याचार से बचने के लिए।
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