बजट है अबके बही खाता ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
चलो कुछ बदलाव तो हुआ अबके देश की सरकार का बजट लाल रंग के सूटकेस की जगह लाल कपड़े में लिपटा हुआ दस्तावेज़ बन पेश किया बही खाता नाम देकर। लालजी का बहीखाता बदनाम रहा है उस में लालजी का जमा बढ़ता रहता है कर्जदारों का क़र्ज़ कम ही नहीं होता असल से ब्याज ज़्यादा होता जाता है। सरकार या देश का बजट वास्तव में कभी मुनाफे वाला नहीं हुआ भले उसके पास कमी किसी तरह की नहीं होती है। लाख करोड़ से कम की बात करना लगता है चिल्लड़ की बात है। घाटा ही घाटा है और घाटे को बढ़ाने को ही विकास कहते हैं। टीवी अख़बार बेकार समझने समझाने की नाकाम कोशिश करते हैं जबकि सच में पेश करने वाले को भी खबर नहीं होती इस जादू के पिटारे से कौन सा जिन्न निकलने वाला है। कागज़ पर लिखा हुआ बताते हैं कभी भी काम आ सकता है। पहले लिख बाद में दे भूल पड़े तो कागज़ से ले , दुकानदार अपने बच्चों को पहला सबक यही देते थे। सरकार बजट पेश करते हुए लिखती है किस किस को इस साल कितना देना है और किस किस से कैसे कितना वसूलना है फिर भी कहीं से क़र्ज़ उठाना भी होगा ये बताया नहीं जाता बस कहते हैं इस साल घाटा बढ़कर इतना हो जाएगा। ये घाटा कौन देगा बराबर करने को कोई नहीं बताता कोई नहीं सवाल करता है। चादर जितनी है पांव उतने बढ़ाने की कोई बात नहीं चादर को खींच तानकर फैलाने को जाल बुनते हैं। सरकार को कभी भूखे नहीं सोना पड़ता है बेघर भी नहीं होती कभी सरकार उसकी शानो शौकत भी बढ़ती जाती है शासक लोग और विपक्षी दल के लोग भी खुद अपने लिए जितना चाहते खुद ही बढ़ा लेते हैं। कर की वसूली और आमदनी बढ़ाने को देश की संपदा बेचने का भी रास्ता होता है अलीबाबा चालीस चोर की कथा का आधुनिक संस्करण यही है। चोरों की नगरी है राजधानी और खज़ाना ऐसा है जिस का ताला बंद होता नहीं कभी खुला रहता है। सरकारी गोदाम का अनाज चूहे खाते रहते हैं सड़ता भी रहता है मगर भूखे लोगों तक पहुंचाने की फाइल खो जाती है चूहे कुतर जाते हैं।जो किसी ने नहीं सोचा सरकार को पता चल गया है , लालजी की बही का सच समझते सब हैं समझ पाए नहीं लोग। बही के कागज़ लाल रंग की जिल्द में इक सफ़ेद रंग के धागे से पिरोये हुए होते हैं। बही को बांधे रखते हैं मगर खोलने को धागे को निकाल कर किसी का खाता निकाल उस कागज़ को फाड़ने या निकालने से कोई दूसरा बीच में रखने की सुविधा होती है। पन्ना नंबर सही रखना कोई कठिन काम नहीं सब मुमकिन है। आधुनिक काल में सरकारी साइट्स या ऐप्स पर कुछ अपलोड करने के बाद डिलीट करने का विकल्प रहता है। कहीं आपको यहां बजट की जानकारी तो नहीं चाहिए थी पढ़ने को , क्या होगा उस से दिल बहलाओगे जन्नत का ख्वाब समझकर। जिनको मिलना है उनको इसकी ज़रूरत नहीं है उनकी पसंद और ज़रूरत पहले से सरकार पूछ चुकी होती है। कल कोई आपको रेखा खींच कर दिखाएगा पैसा कितने फीसदी किस को मिलेगा किस तरह से आएगा। बजट बनाने के बाद भी कभी आंबटित राशि खर्च नहीं हो सकेगी अड़चन एक नहीं सौ हैं तो कहीं बजट में नहीं शामिल सरकार की मर्ज़ी से खर्च करने को उपाय भी होता है। बजट किसी और काम को आंबटित था उसको किसी और को देने को कागज़ पर लिखने भर की देरी है आदेश है पहले से सब सही करने को बैठे हैं। सही करना मतलब ठीक करना नहीं होता है हस्ताक्षर करने को कहते हैं , कहते थे कभी किसी दल का कोई लिखित हिसाब किताब नहीं था। खाता न बही केसरी जो कहे वो सही ये हर सत्ताधारी का हिसाब है नाम कोई और होता है असली तिजोरी की चाबी जिसके पास वही मालिक होता है।
आजकल के युवा नहीं जानते कभी पुरानी फिल्मों में सूदखोर की बही बड़ी बदनाम हुआ करती थी। गोपी फिल्म में गोपी साहूकार की दुकान पर नौकरी करते हुए लालजी की बही के पन्ने फाड़ने लगता है तो कोई सवाल करता है पता भी है कौन से पन्ने फाड़ने हैं और गोपी कहता है जो फाड़ने हैं वही फाड् रहा हूं। अब कोई गोपी नहीं है जो साहस करे और जिन पन्नों को फाड़ना चाहिए फाड़ने का काम करे। मगर कहते हैं दुनिया घूमती हुई वापस उसी जगह पहुंच जाती है जहां से चलना शुरू किया था। ऑनलाइन बैंकिंग तक पहुंचने के बाद वापस पुराने बही खाते पर आने का कुछ महत्व अवश्य है। इसको आप प्रतीकात्मक समझ सकते हैं सिंबॉलिक शब्द उपयुक्त होगा।
1 टिप्पणी:
वाजिब प्रश्न करता लेख...घाटे का दिन दिन बढ़ताबोझ...सरकार भूखी और बिना घर नही रहती...
पंक्तियां याद हो आईं
बड़ी सी जौंक बनकर ख़ून सारा चूस लेता है।
हमें यारो महाजन का तगादा चूस लेता है।।
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