जुलाई 23, 2019

क्या पूछते हो कौन हूं क्या हूं मैं ( हाल-ए-दिल ) डॉ लोक सेतिया

 क्या पूछते हो कौन हूं क्या हूं मैं ( हाल-ए-दिल ) डॉ लोक सेतिया 

  आज सोचा खुलकर साफ़ साफ़ बात की जाये , बस बहुत हुआ ज़िंदगी गुज़ार दी सोचते सोचते कैसा होना था क्यों नहीं उस तरह का जैसा सब लोग चाहते हैं। ग़ालिब की ग़ज़ल याद आती है , हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है , तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े गुफ़्तगू क्या है। ये जो हर दिन मुझसे सवाल करते हैं मैं कौन हूं क्या हूं कैसा हूं बताएं तो सही ये क्या तौर तरीका ढंग तहज़ीब है। मुझे रहने दो मुझ जैसा अपने जैसा क्यों बनाना चाहते हो , तुम क्या मुझ जैसे बन सकते हो कभी नहीं। मैंने नहीं चाहा किसी को बदलना फिर मुझी को हर कोई क्यों बदलने की सलाह सुझाव निर्देश आदेश देता है। समझ नहीं आता औरों को क्या परेशानी है मेरे मुझसा होने से बस यही जो उनको पसंद है मैं उस तरह का नहीं हूं। कोई है जो दुनिया को जैसा पसंद है ठीक उसी तरह का हो , खुद आप भी कब किसी और की पसंद के अनुसार बन सकते हो। 

मुझे समझ नहीं आता क्या जिस तरह ख़ुशी को दिखाने को लोग बंदर की तरह नाचते उछलते हैं ज़ोर ज़ोर से ठहाके लगाकर हंसते हैं झूमते गाते नज़र आते हैं क्या वास्तव में उनको अपने भीतर ख़ुशी अनुभव होती है। और अगर होती है तो पल दो पल बाद उनके चेहरे उदास मुरझाए क्यों लगते हैं। सबको औरों की कमियां दिखाई देती हैं ढूंढते रहते हैं हर किसी में कमी क्या है , किसी दिन तलाश करते सब में कुछ अच्छाई की तो हर कोई अच्छा लगता। कोई भी किसी को अच्छा नहीं लगता है। कभी कोई आशिक़ किसी महबूबा को चांद सितारे तोड़ कर ला देने का झूठा ख्वाब दिखलाने की जगह वादा करता तुम जैसी हो तुम्हें बदलना नहीं उसी तरह पसंद करता हूं करता रहना है करूंगा ये कसम खाता हूं। बस फिर कुछ भी और उसको नहीं चाहिए होता। महिलाओं को झूठे सपने चांदी सोने के गहने और महंगे उपहार पैसे और सामान से खुश करने की कोशिश करने वाले उसकी ख़ुशी किस बात में है ज़रा सोचते तो जानते। गुलामी की ज़ंजीर भाती नहीं दिल से इक कसक रहती है काश अपनी मर्ज़ी से जीने की इजाज़त होती लेकिन कोई किसी को इजाज़त देता नहीं है। अपने जीने का अधिकार अपनी आज़ादी हासिल करनी होती है भीख मांगने की तरह खैरात में नहीं मिलती है। 

आप ऐसे क्यों बोलते हैं खाते हैं पहनते हैं हर छोटी से छोटी बात पर नज़र रहती है। नहीं ये अपनापन नहीं प्यार मुहब्बत हर्गिज़ नहीं है ये बंधन है अनचाहा मर्ज़ी का नहीं। कोई भी पिंजरे में कैद नहीं रहना चाहता और लोग आपको आकाश में उड़ने की अनुमति कभी नहीं देंगे उनको रिश्तों की रस्सी नहीं जंज़ीर से जकड़े रखना है आपको। क्या इस तरह खोने का कोई डर है या फिर हमने गुलामी को कोई भला सा नाम दे दिया है। शायद मेरी तरह आप भी बचपन से बुढ़ापे की दहलीज़ तक इसी उलझन में खुद की नहीं औरों की मर्ज़ी से जी जी कर जीने का अभिनय करते रहे जिए नहीं जीने की तरह पल भर भी। किसी दिन इसी तरह जैसे मैं ऐलान कर रहा हूं आपको भी करना पड़ेगा बस बहुत हुआ अब और नहीं मुझे रहने को जैसा भी हूं मैं। अच्छा हूं बुरा हूं जो भी हूं जैसा भी आपको कोई दर्द कोई तकलीफ कोई परेशानी नहीं देता तो क्या कारण है जो मुझे हर दिन अनचाहा होने का एहसास करवाते हैं। काश कभी हर कोई खुद अपने आप को लेकर विचार करता सोचता समझता खुद जैसा है क्यों है किसी दूसरे को कुछ कहने की बात फिर ज़ुबान पर आती ही नहीं। 
 

 

कोई टिप्पणी नहीं: