जुलाई 09, 2019

सच्ची-झूठी संवेदना , असली-नकली चेहरे ( आजकल का समाज ) आलेख - डॉ लोक सेतिया

  सच्ची-झूठी संवेदना , असली-नकली चेहरे ( आजकल का समाज )

                               आलेख - डॉ लोक सेतिया 

बात हर दिन की अपने अलग ढंग से होती है फिर भी कल रात से बात शुरू करता हूं खत्म कभी नहीं हो सकती मगर आज सुबह तक की भी सच्ची बात बताना चाहता हूं। कल रत टीवी पर रियलिटी शो पर इक सैलाब था भावनाओं का मेरी भी आंखे नम हो गईं दिल भर आया देख कर। इक बच्चे की बात बताते हुए जो संगीत और गाने के शो में भाग लेने आया हुआ है कोई उसकी आवाज़ से पहले उसकी बात बताना चाहता है कहते हुए मंच पर आया तो वीडियो दिखाया उस बच्चे के पास फटे हुए जूते हैं जिसको उसके पिता ने खुद हाथ से ठीक करने की कोशिश भी की मगर उस के छेद से पानी अंदर चला जाता है और स्कूल पहुंचने में देरी हो जाती है। ये दिखाने के बाद कहने लगा कि आज कुछ लाया है उस बच्चे को उपहार देने को , और नये जूतों की जोड़ी भावनात्मक होकर अश्क भरी आंखों से अपने हाथ से पहनाई। घटना सही है और सच भी इस में कोई शक नहीं सवाल नहीं मगर इतना साफ है ऐसा सोचकर किया गया दर्शकों को दिखाने को कि हम लोग संवेदनशील हैं और भलाई का काम करते हैं। दिखाना ज़रूरी नहीं था इक तमाशा बनाया गया किसी की गरीबी बेबसी को खुद की महानता साबित करने को। आपको लगता है ये दिखाने से लोग भी गरीबों के हमदर्द बन सकते हैं तो माफ़ करना पल भर बाद लोग कोई और बात करने लगते हैं। ये दर्द भी उनके लिए मनोरंजन का ही इक भाग है चुटकले की तरह या फिर संचालक बनकर किसी रियलिटी शो में किसी महिला जज से हंसी ठिठोली में आवारगी की बातें करना किसी की पहचान बन जाता है। ये सब बेचने का सामान है और आपको नहीं पता असली काम विज्ञापन से कमाई करना है हर शो या सीरियल स्पॉन्सर का फायदा पहले देखता है बाकी हर बात पीछे रह जाती है। मध्यांतर के बाद अचानक आपको गंभीर विषय से किसी का इश्तिहार दिखाने पर लाते हैं और नायक अदाकार कलाकार आपको समझाते हैं। उनका मकसद था हासिल कर जाते हैं। 

शो बदलते हैं बेबस लोग भी बदल जाते हैं अब किसी की बचपन की निराशा की कैसे उसको हर कोई खुद से नीचा समझ अपमानित करता था , बुझी बुझी आंखें फीका चेहरा और निराशा भरा जीवन। और कैसे कैसे उसने हासिल किया सब कुछ। कोई आकर नाम शोहरत पाने के बाद चाहता है देश की एकता की भावना को लेकर कोई गीत कोई फिल्म या कुछ और बनाकर सबको देशभक्ति का पाठ पढ़ाये। देशभक्त हम सब हैं मगर कुछ लोगों ने अपना नाम रखकर या इस विषय को भुनाने को फिल्म गीत बनाकर खूब पैसा कमाया है। और हमने मान लिया उनकी देशभक्ति की भावना सच्ची और बेमिसाल है। मगर ये भूल जाते हैं कि उन्होंने ही बेहद बुरे खलनायकी वाले और गुंडे तमाम अपराधी कर्म करने वाले किरदार को भी दिखलाया ही नहीं उसको जायज़ भी ठहराने का काम किया है लोगों से खलनायक की गंदी बात पर तालियां बजवाईं हैं। मकसद कोई समाज को दिशा दिखलाना नहीं भटकाना है। मीडिया टीवी फिल्म वालों ने मानवीय संवेदनाओं को भी बाज़ार में बेचने का सामान बनाया है कमाई करने को। आजकल जो पतन समाज का दिखाई देता है उसके लिए इन सभी की किसी न किसी ढंग से ज़िम्मेदारी बनती है। मगर हमने उनको खुदा समझने की भूल की है जबकि वास्तव में ये भी अपनी तरह से इंसान ही हैं जो मोह माया और लालच हवस के जाल में उलझे हैं बस उनके पास अपने को जायज़ ठहराने को जवाब है जैसा समाज है हम वही दिखलाते हैं। नहीं ये मकसद नहीं है आपको लोग नहीं कहते गंगदी परोसने को आप गंदगी को परोसते हैं और उसे स्वादिष्ट बनाते हैं जो अपराध है अपने असली कर्तव्य से विमुख होने का। 

उनकी बात छोड़ सामने अपने समाज की करते हैं। हम धर्म की अच्छे विचारों की बातें करते हैं मगर असली जीवन में आचरण कुछ और होता है। आज सुबह देखा सैर पर किसी को इक पल में सभ्यता का बदला ढंग अपनाते हुए , कोई मिला जिसको खुद से छोटा मानते हैं तो बात करने का अंदाज़ अलग था तभी कोई सामने बराबर का आता दिखाई दिया तो अनदेखा कर जिसको खुद से बड़ा समझते हैं उसके सामने हाथ जोड़ सर झुकाये नमस्कार करने लगे। हर किसी से इंसान समझ कर नहीं मिलते हम लोग। शायद इतनी जल्दी कोई अदाकर भी अपना किरदार नहीं बदल सकता जिस तरह लोग चेहरा हाव भाव बदलते है। लगता है जैसे हर चेहरे पर कोई मुखौटा चिपका हुआ है असली सूरत की पहचान करना मुमकिन ही नहीं है। 

                       देश समाज जाने किस तरफ जाता जा रहा है। सब मतलबी स्वार्थी हैं और हर कोई देश से प्यार इंसानियत की हमदर्दी की सच्चाई भलाई की बातें करता है। राजनीति का अर्थ ही किसी भी तरह शासन और अधिकार हासिल करना है। ये कैसी व्यवस्था है कि जिस देश की आधी आबादी भूख और बुनियादी सुविधाओं से परेशान बदहाल है उस देश के निर्वाचित संसद विधायक शाही शान से गुलछर्रे उड़ाते हुए खुद को जनता का सेवक कहते हैं। अधिकारी कर्तव्य की भावना ईमानदारी को भूल कर मनमानी करते हैं और जो नहीं करना चाहिए वही अवश्य करते हैं लेकिन जिसको करना उनका फ़र्ज़ है कभी नहीं करते। देश का संविधान और कानून इन लोगों को केवल अपने स्वार्थ सिद्ध करने को उपयोगी लगता है। ये ऐसा रक्षक हैं जो जनता की सुरक्षा के नाम पर उस पर ज़ुल्मों सितम करना अपना अधिकार मानते हैं कोई नियम कानून इन पर लागू होता नहीं है। इनसे अधिक सवेंदनहीन कोई भी नहीं है। 

धर्म सबसे बड़ी लूट का साधन है धार्मिक जगहों पर धन के अंबार जमा हैं मगर धर्म वाले उसका उपयोग धर्म का पालन कर दीन दुःखियों की सेवा या मानव कल्याण पर नहीं आडंबर पर बर्बाद किया करते हैं। जिस धर्म की बात करते हैं उसका पालन खुद इनको नहीं करना आया कभी भी। हर कोई नज़र कुछ आता है होता कुछ और ही है। कोई बाबा बनकर कमाई का धंधा करते मालामाल होकर भी दावा करता है उसका मकसद मुनाफा कमाना नहीं है। बड़े से बड़े नाम वाले झूठ बोलने में संकोच नहीं करते अपने आचरण पर शर्मसार नहीं हुआ करते हैं। शिक्षक चिकिस्तक व्यौपारी अपनी सेवा के दाम कई गुणा वसूल करते हैं और कहते रहते हैं साथ में आपको कोई छूट कोई फायदा ख़ास अवसर पर देते हैं किसी को किसी पर रहम नहीं आता है और देखने बात करने में सब शरीफ हमदर्द लगते हैं। जो जितना पढ़ लिख जाता है उच्च पद या बहुत सारा धन जमा कर लेता है और भी बेदर्दी से काम लेता है। ऊंचाई जिसको कहते हैं ज़मीर को कहीं छोड़ हासिल की जाती है। मगर इसको आधुनिकता और विकास बताया जाता है। दुनिया देखने को पहले से सुंदर लगती है जबकि वास्तव में इसकी शक्ल भयानक होती गई है। असलियत जो है दिखावा उसके विपरीत किया जाता है। 
 

 

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