अप्रैल 03, 2019

POST : 1039 खुद दिल से दिल की बात ( आत्म मंथन ) डॉ लोक सेतिया

    खुद दिल से दिल की बात ( आत्म मंथन ) डॉ लोक सेतिया 


       शुरुआत कहां से करूं नहीं समझ पा रहा। बहुत तार उलझे हुए हैं ज़िंदगी के जितने सुलझाता हूं और भी उलझते जाते हैं। कोई भी दोषी नहीं है खुद मैं ही मुजरिम हूं अपना। अपने आप से प्यार नहीं किया हर किसी से चाहत की व्यर्थ की उम्मीद रखी। दोस्ती को धर्म ईमान समझा दोस्त बनाये भी मिले भी मगर कोई भी नहीं मिला जिसकी तलाश थी है और रहेगी जो दिल की बात जान जाये बिना कहे सुने ही। रिश्तों की दास्तान अजीब सी है हर किसी को शिकवा है शिकायत है अविश्वास है और जाने किस किस बात की मन में छुपी हुई कड़वाहट सभी को है लगता है। ज़िंदगी नहीं जैसे इक गुनाह किया है और कटघरे में खड़ा रहा आरोप सुनता सभी से। उम्मीद करना कोई बुरी बात नहीं लेकिन जब भी किसी रिश्ते से जो चाहते नहीं हासिल होता तो किसी से नफरत करना किसी को अपमानित करना अच्छा नहीं है। शायद मुझे भी रही है शिकातय कुछ लोगों से बस इतनी कि काश मुझे समझते थोड़ा साथ चलते तो मेरा अकेलापन तनहाई दर्द आंसू कम हो जाते और कभी कोई ख़ुशी मेरे दामन में भी होती थोड़ी सही। दस्तक फिल्म की ग़ज़ल बहुत पसंद रही है मुझे लगता है मेरी बात मेरी कहानी बयां करने को इक वही बहुत है।

          हम हैं मताये कूचा ओ बाजार की तरह , उठती है हर निगाह खरीदार की तरह। 

लिखना इक ज़रूरत बन गया खुद अपने आप से अपनी बात कहना अपने दर्द अपनी आहें अपने अश्क अपने हाथ से पौंछना। कोई दामन नहीं मिला जिस पर गिरते आंसू और मोती बन जाते कोई गोद नहीं मिली सर रखकर सोने को चैन से , कोई हमदर्द नहीं मिला कोई हमसफ़र नहीं मिला जीवन के अकेले सफर में जो चार कदम साथ साथ चलता बिना किसी बंधन के निस्वार्थ भाव से। किसी को समझा नहीं पाया और किसी को भी फुर्सत भी नहीं थी मुझे समझने की। काश मुझे अपने खुद के साथ रहने की ही इजाज़त मिल जाती मगर वो भी नसीब नहीं हुई। साथ देते नहीं निभती नहीं और अकेला होने की भी अनुमति नहीं ये जीना इक कैद की तरह है। इस पिंजरे से आज़ादी मौत ही शायद दे सकेगी मगर मौत भी चाहने से मिलती कहां किसी को। ज़िंदगी मिलती तो जी लेते मौत मिलती तो मर भी जाते इस तरह अधर में लटके रहने से अच्छा था। 

    अच्छा नहीं हूं मगर क्या इतना बुरा हूं कि हर किसी का तिरिस्कार मिलना भाग्य बन गया है। कोशिश बहुत की अच्छा बनने की मगर शायद हर किसी की कसौटी पर खरा उतरना संभव नहीं है। पल पल मरता रहा इसी कोशिश में फिर भी नाकाम रहा कोई भी नहीं जिसको वो सब दे पाता जो उसकी चाहत रही। आज देखता हूं कौन किस को क्यों अच्छा समझता है , जो किसी की ज़रूरत को पूरा कर सकता है हर कोई उसको अपना समझता है और जो लाख कोशिश करने के बाद भी किसी की चाहत ज़रूरत स्वार्थ को पूरा नहीं कर पाता है उस से किसी को प्यार नहीं है। रिश्तों का ये गणित मुझे नहीं पसंद आया बस कहने को नाम के नाते हैं निभाने को दिल से कोई अपना नहीं किसी का। इक कविता लिखी थी दोहराता हूं। 

               वो जहां ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

देखी है हमने तो
बस एक ही दुनिया
हर कोई है स्वार्थी जहां 
नहीं है कोई भी
अपना किसी का।

माँ-बाप भाई-बहन
दोस्त-रिश्तेदार
करते हैं प्रतिदिन
रिश्तों का बस व्यौपार।

कुछ दे कर कुछ पाना भी है
है यही अब रिश्तों का आधार।

तुम जाने किस जहां की
करते हो बातें
लगता है मुझे जैसे 
देखा है शायद 
तुमने कोई स्वप्न 
और खो गये हो तुम।

    लिखना मेरे लिये सांस लेना है बिना सांस लिये जीना संभव नहीं। अपनी इक ग़ज़ल भी फिर से दोहराता हूं इक बार यहां।

 खामोश रहना जब हमारी एक आदत बन गई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खामोश रहना जब हमारी एक आदत बन गई ,
हर सांस पर पहरे लगाना सब की चाहत बन गई।

इंसान की कीमत नहीं सिक्कों के इस बाज़ार में ,
सामान दुनिया का सभी की अब ज़रूरत बन गई।

बेनाम खत लिक्खे हुए कितने छुपा कर रख दिये ,
वो शख्स जाने कब मिले जिसकी अमानत बन गई।

मतलूब सब हाकिम बने तालिब नहीं कोई यहां ,
कैसे बताएं अब तुम्हें ऐसी सियासत बन गई।
( मतलूब=मनोनित। तालिब=निर्वाचित )

अनमोल रख कर नाम खुद बिकने चले बाज़ार में ,
देखो हमारे दौर की कैसी कहावत बन गई।

सब दर्द बन जाते ग़ज़ल , खुशियां बनीं कविता नई ,
मैंने कहानी जब लिखी पैग़ामे-उल्फ़त बन गई।

लिखता रहा बेबाक सच " तनहा " ज़माना कह रहा ,
ऐसे  किसी की ज़िंदगी कैसी इबादत बन गई।

जाने क्या सोचकर बहुत पहले इक छोटी सी कहानी लिखी थी। इक पत्रिका से निर्देश मिला उसको थोड़ा विस्तार से लिखने को दोबारा भेजने की उम्मीद के साथ मगर दोबारा अपने ज़ख्मों को छेड़ना कठिन लगा और नहीं लिख पाया। नहीं मंज़ूर था खुद अपनों से शिकायत खुले आम करना। ये लिखी थी कहानी।

                   चाहत अपनो की ( कहानी ) डॉ लोक सेतिया 

              मन में तो ये बात से रही है। मगर कहूं किस से , कौन समझेगा। कितने साल हो गये हैं मुझे घर से दूर रहते , मगर किसी ने कभी मुझे घर आने को नहीं कहा। अपने ही घर जाने को भला बुलाता है कोई बेटे को बेटी को विवाह के बाद मायके आने को बुलाया जाता है। मगर जब भी हुई बात किसी ने पूछा ही नहीं घर आना है कब बस औपचारिकता निभाई सबने आप तो गांव छोड़ शहर में खुश रहते हो गांव आने की बात की नहीं किसी ने। यूं इसकी ज़रूरत भी नहीं है , मेरे घर जाने पर कोई रोक तो लगी नहीं है। बस इक एहसास रहता है कि जिस तरह मुझे घर अपनों की कमी लगती है उदास हो जाता याद करते कोई होता जिसको मेरे घर से दूर होने की कमी खलती नहीं मिलने पर उदास होता मेरी तरह कोई। माता पिता को बहनों से कितना लगाव है अपनापन है तीज त्यौहार पर हर अवसर पर याद किया जाता है कोई उपहार भेजते हैं कभी लिवाने को जाते हैं कभी आने को खत लिखते हैं। सभी बहनें आती हैं मिलती हैं सभी से गली की गांव की सखियों से और पुरानी यादें ताज़ा करने के साथ नई कुछ मधुर यादें साथ ले जाती हैं। 
        
      मेरा मन क्यों तरसता है ऐसे मोह को जैसे बेटी को लेकर चिंता रहती है कैसी होगी खुश तो है और सोचते हैं कितने दिन से मिलने नहीं आई न हम मिलने जा पाये। मेरे लिए भी होता नहीं पास होने का थोड़ा एहसास किसी को तो कभी। केवल इसी लिए कि मैं लड़का हूं और अपने घर गांव से दूर होना पड़ा है काम करने के लिए मुझे बेगाना बना दिया गया लगता है। घर जाकर भी परायापन लगता है जब पूछते हैं कैसे आना हुआ कब तक रहना है जैसे घर का सदस्य नहीं कोई बिन बुलाया महमान हो। नहीं जानता कोई नहीं महसूस करता कोई भी घर गांव के याद कर कितना उदास हो जाता हूं मैं। अपना सब कुछ रिश्तों का अपनापन खो कर पाया क्या है उदासी अजनबीपन का दर्द का अनुभव। अपने घर से मुझे पराया कर दिया गया है क्या पढ़ लिख शिक्षित होने की ये कीमत है चुकाने को ज़रूरी है। कितने दोस्त हैं जो बाहर रहते हैं वापस घर गांव आते हैं तो उल्लास का अनुभव होता है। मुमकिन है मेरा सफल नहीं होना मेरी कोई कमी हो मगर कोई अगर ऐसे में साथ देने का भरोसा देता और हौंसला बढ़ाता तो शायद सफलता पाना आसान होता मगर जब सभी नाकाबिल और जाने क्या क्या कहकर हीनभावना के भंवर में अकेला छोड़ देते हैं तो सफल होना असंभव हो जाता है। हर किसी ने मान लिया है कि मुझे इसी शहर में रहना है और उस अपने घर से मेरा कोई नाता नहीं है। मुझे जाने किस जुर्म की ये सज़ा मिली है कितने जन्मों के लिए। काश मैं लड़का नहीं लड़की बनकर जन्म लेता और बहनों की तरह अपनी उदासी की बात कह सकता भीगी आंखों से। मगर मेरे आंसू आना जैसे कोई कायरता ही नहीं अपराध भी है जिस पर ताने कसे जा सकते हैं। पुरुष की भावनाओं को क्या कोई नहीं समझता है। मेरी बहनों को लगता है पीहर पर उनका हक है अच्छा है मगर मुझे भी अधिकार अपनापन मिलता तो कितना अच्छा होता। 
     मुझे उच्च शिक्षा के लिए बचपन से ही बाहर रहना पड़ा , बाकी भाई बहन पढ़ने लिखने की रुचि नहीं रखने के कारण गांव और घर में रहे। ये बात कभी कभी खलती है कि मुझे याद दिलवाया जाता था मेरी पढ़ाई पर दो सौ रूपये महीना खर्च होता है और पांच साल का हिसाब पंद्रह हज़ार बना हुआ था कोई उधार था क़र्ज़ था जाने क्या था। शायद अच्छे अमीर परिवार में हर सदस्य को इतना नहीं इस से अधिक खर्च करने को मिलता था। जुआ शराब जाने क्या क्या सब मज़े से करते थे किसी का कोई हिसाब नहीं लिखा गया था। ये सब सोच कर लगता जैसे मैं उनकी दुनिया में अनचाही संतान की तरह हूं। जितना पढ़ता गया सब मुझसे दूर होते गये और आना जाना कम होता गया किसी अवसर पर जाना होता। शिक्षा का असर हुआ और सही गलत अच्छे बुरे की समझ आने लगी और सच कहने की आदत ने अनुचित को मंज़ूर नहीं करने दिया तो सब को बुरा लगने लगा मैं। 
 
         अभी तलक रिश्तों में कुछ बचा हुआ था लेकिन मुझसे इक गुनाह हो गया। मैंने परिवार वालों की मर्ज़ी से इक ऐसी लड़की से बिना कोई कारण शादी करने से इनकार कर दिया जो अपने साथ कई लाखों की जायदाद साथ लाती और मुझे और अमीर बना देती। डॉक्टर बेटे की इतनी कीमत की चाहत कोई हैरानी की बात नहीं थी जबकि हमारा परिवार कोई दहेज का लालची नहीं था बाकी भाइयों की शादी सामान्य ढंग से करते कोई मांग नहीं की थी। मगर घर आती लक्ष्मी को ठोकर लगाने वाले को नासमझ नहीं बेअक्ल माना जाता है। तुझे दुनियादारी नहीं आने वाली घोषणा के साथ बिना बताये घर निकाला हो गया। किसी और कम पढ़े लिखे भाई के लिए ऐसा रिश्ता नहीं आया था तो जिस बेटे की पढ़ाई पर निवेश किया था उस को मुनाफे सहित वसूल किया जा सकता था। मुझे अपनी कीमत लगना स्वीकार नहीं था और बिकने से मना करना ज़रूरी था। परिवार वाले समझ गये थे ये खोटा सिक्का दुनिया के बाज़ार में नहीं चलने वाला। सब ने बहुत समझाया मगर मुझे कोई समझ नहीं सका न समझा पाया ही। मैंने अपने काम में भी मूर्ख बनाकर धन कमाना और कमाई के सभी ढंग अपनाना मंज़ूर नहीं किया। ईमानदारी से जितनी आमदनी हुई उसी से खुश रहा और हमेशा आर्थिक तंगी को झेलता रहा मगर अपने असूल नहीं छोड़े। 
 
       संयुक्त परिवार में बड़े होने पर विवाहित बेटों को जायदाद और आमदनी का हिस्सा मिलने लगता है। सब को अपना अपना हिस्सा मिला मुझे नाम को मेरे नाम किया जायदाद पर मगर मुझे मिला नहीं कुछ भी कोई आमदनी का उचित बराबरी से भाग कभी भी। जाने क्यों मुझे महसूस ही नहीं हुआ घर की किसी चीज़ पर कोई अधिकार मेरा भी है। शादी के दस साल बाद शायद पिता जी को कुछ कारणों से समझ आया कि ठीक नहीं हुआ मेरे साथ तब खुद उन्होंने मुझे जायदाद बेचने को खुद ही कहा ताकि अपना घर करोबार की जगह बना सकूं। अपने मरने से तीन चार साल पहले मुझे जितना और जैसा हिस्सा उनको उचित लगा दे गये , नहीं उनकी अपनी विवशता रही मुझे समझ थी कोई गिला नहीं है। मिलने को सब कुछ मिला है मगर नहीं मिली कोई भी चाहत अपनो की कभी इसका अफ़सोस रहता है।

     मुझे नहीं मालूम मुझे ये सब लिखना चाहिए था या नहीं। मैं जनता हूं मेरी तरह बाकी सभी का भी अपना अपना पक्ष अपना नज़रिया होगा। और मैं किसी को दोष नहीं देता बल्कि चाहता हूं जिनको मुझसे जो भी गिला है मेरा कोई भी गुनाह मानते हैं मुझे उसकी सज़ा दे सकते हैं। बस हर दिल आरोप लगाना बंद करें इतनी विनती है। आखिर में अपनी इक ग़ज़ल कहना चाहता हूं।

खुदा बेशक नहीं सबको जहां की हर ख़ुशी देता - लोक सेतिया "तनहा"

खुदा बेशक नहीं सबको जहां की हर ख़ुशी देता
हो जीना मौत से बदतर ,न इतनी बेबसी देता।

मुहब्बत दे नहीं सकते अगर ,नफरत नहीं करना
यही मांगा सभी से था ,नहीं कोई यही देता।

नहीं कोई भी मज़हब था ,मगर करता इबादत था
बनाकर कश्तियां बच्चों को हर दिन कागज़ी देता।

कहीं दिन तक अंधेरे और रातें तक कहीं रौशन
शिकायत बस यही करनी, सभी को रौशनी देता।

हसीनों पर नहीं मरते ,मुहब्बत वतन से करते
लुटा जां देश पर आते ,वो ऐसी आशिकी देता।

हमें इक बूंद मिल जाती ,हमारी प्यास बुझ जाती
थी शीशे में बची जितनी ,पिला हमको वही देता।

कभी कांटा चुभे ऐसा ,छलकने अश्क लग जाएं
चले आना यहां "तनहा" है फूलों सी नमी देता।  
 
    आज दिल से दिल की बात करनी चाही है कोई और मकसद नहीं है। मेरे अपने फिल्म के गीत , कोई होता जिसको अपना हम अपना कह लेते यारो। और अनुभव फिल्म का गीत , फिर कहीं कोई फूल खिला चाहत न कहो इसको। फिर कहीं कोई दीप जला मंदिर न कहो इसको याद आये हैं । अलविदा । 

 
 


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