अप्रैल 28, 2019

झूठ की महिमा का बखान ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

       झूठ की महिमा का बखान ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

    हैरानी की बात है आज तलक किसी ने भी झूठ का सच लिखा नहीं बताया नहीं समझ कर समझना चाहा नहीं और किसी को भी समझाया नहीं। झूठ क्या है कौन है दुनिया को समझ आया नहीं , सच्ची बात तो ये है यही है जो सबका अपना है किसी ने इस से नाता निभाया नहीं। कोई है झूठ जिस के काम आया नहीं क्यों किसी ने किसी को बतलाया नहीं। आज आपको विस्तार से झूठ की कथा सुनाते हैं झूठ की हक़ीक़त क्या है बताकर आपको राह दिखाते हैं। 

        सबसे बड़ा झूठ क्या है , ये जो दुनिया है जीना है झूठ है हर कोई कहता है सुनता है मानता है कि नहीं जानता नहीं है। वास्तविकता ये है कि यही जीना सच है और यही दुनिया सच्ची दुनिया है मौत के बाद कहीं कोई दुनिया नहीं है ये सबसे बड़ा झूठ है और इस झूठ को सच बनाने को कितने और झूठ घड़ने पड़े कोई हिसाब नहीं है। आप को यकीन नहीं तो मर कर देखना कुछ भी नहीं कहीं भी हमने देखा है मरने के बाद। फिर आपको नहीं समझ आई बात कब मरा था मैं आप खुद बताओ क्या आप नहीं मरते हो रोज़ जाने कितनी बार। कितने लोग हैं जो ज़िंदा हैं समझोगे तो पाओगे ज़िंदा लाश बन कर अपना बोझ उठाए मौत की राह देखते हैं। मरना चाहते नहीं जीना जानते नहीं अधर में लटके हैं मौत मांगते हैं सामने नज़र आये तो घबराते हैं मरना है इक दिन जानते हैं पर अभी फुर्सत नहीं ज़िंदा रहकर मरने का मज़ा लेते हैं। आपको साथ साथ जाने कितनी कथाएं कितनी कविताएं कहानियां याद आती जा रही हैं। उनको छोड़ कर झूठ की महिमा सुनने पर ध्यान दो तभी आपका कल्याण हो सकता है। 

     झूठ का जन्म सच के साथ ही हुआ था जुड़वां भाई की तरह हैं दोनों। उसकी पहचान इस से इसकी पहचान उस से जुड़ी हुई है इनको अलग अलग करना संभव नहीं है। सच परखना है तो कसौटी झूठ की होगी और झूठ को तोलना है तो तराज़ू सच का होगा ही होगा। छोटे थे बचपन में सच और झूठ मिलकर रहते थे कोई झगड़ा नहीं होता है अपने अपने पहनावे से उनकी पहचान हो जाती थी। बड़ा होने पर झूठ चालाक बनता गया और सच सब जानकर समझकर भी नासमझ बुद्धू मूर्ख उल्लू कई ख़िताब मिलते रहे और कुछ भी नहीं कहा। सच होने का विश्वास सबको गरूर लगने लगा और सभी सच से कतराने लगे। झूठ को अपना पहनावा पसंद नहीं था मैला कुचैला दाग़दार बदरंग और सच का चकाचक सफ़ेद बिल्कुल डिटर्जेंट वाले इश्तिहार की तरह से। मांगने से सच नहीं माना तो तरकीब लड़ाई गई झूठ सच को साथ लेकर नदी पर नहाने गया और सच अभी डुबकी लगा रहा था कि झूठ बिना स्नान बाहर निकला और सच का सफ़ेद लिबास पहन चल दिया घर शहर दुनिया की तरफ। सच को झूठ का लिबास पहनना नहीं पसंद था इसलिए उसको नंगा ही बाहर निकलना पड़ा और हर कोई सच को शर्म करो जैसे ताने देने लगा। सच तभी से उसी तरह से नंगा है और कोई उसको देखना नहीं चाहता है अपने अपने भीतर सच को कैद कर झूठ का लिबास पहने बाहर शान से निकलते हैं। 

     सदियों पहले सबसे अधिक झूठ आशिक़ लोग बोला करते थे , बिना झूठ उनका गुज़ारा हो नहीं सकता था। मगर मुहब्बत के खेल में नियम था सब जायज़ है। धर्म वालों ने पहला सबक ही उल्टा पढ़वाया और सच का उपदेश देना शुरू किया खुद झूठ बोलकर। झूठे लालच देकर सच की राह चलने से स्वर्ग जन्नत और सुःख मिलने की कहनियां घड़ कर अपने लिए सब हासिल करने का उपाय करने लगे। आप दो बाद में कई गुणा मिलेगा ये अभी तक जारी है। हमने विचार नहीं किया जिनको आज हम दे रहे हैं बाद में उनको ही वापस लौटाना होगा तो खुद वो क्यों इतना नुकसान वाला धंधा करते हैं। धर्म वाला धंधा कभी घाटे का नहीं कमाई बढ़ती जाती है कोई सीमा नहीं। हमको संचय नहीं करने की सीख और खुद संचय करने की हवस बढ़ती गई।

राजनीति और जिस्मफरोशी दुनिया के सबसे पुराने कारोबार झूठ से ही चलते हैं। वैश्या का ऐतबार नहीं और नेताओं का कोई भरोसा नहीं कौन नहीं समझता फिर भी इनकी चमक दमक इनका जाल ऐसा है लोग खुद चले आते हैं फंसने को। खुद अपने लिए कत्ल का सामान आशिक़ करते हैं महबूब को अपना बनाकर और लोग नेताओं को कुर्सी पर बिठाकर खुद अपनी गुलामी का जरिया बनाते हैं। जिस्म बेचने वाली बदन बेचती है और शासन करने वाले ज़मीर बेचते हैं अपने बनाने वाले को ही ठगते हैं। ठगों की कहानियां राजनीति की कथाएं बन जाती है आजकल।

   झूठ की सीमा हुआ करती थी और झूठों से बढ़कर कोई झूठ नहीं बोल सकता था। मगर सच आवारा बेघरबार अकेला घूमता हुआ उनके दफ्तर चला गया जो दावा करते थे सच के झंडाबरदार हैं सच को ज़िंदा रखते हैं बचाते हैं। अख़बार टीवी चैनल सोशल मीडिया मैगज़ीन वाले लोग हर शहर गली दुकान लगाई हुई थी असली सच हमारे पास है। सच ने अपना परिचय दिया तो उसके होने का सबूत मांगने लगे और झूठ की गवाही को पहली शर्त रखा गया। सच हैरान हुआ देख कर कि उसका जुड़वाँ भाई कब से वहां पहुंच साथी बनकर विशेषाधिकार हासिल कर ऐश कर रहा था और सबसे धनवान और ताकतवर बन गया था। सच को उन्होंने तहखाने में बंद कर लिया है और झूठ को सच का लेबल लगाकर महंगे दाम बेचने लगे हैं। बाकी सभी झूठे उनके सामने नतमस्तक हैं। धर्म राजनीति ज़मीर बेचने वाले जिस्म ईमान बेचने वाले सारे उनको गुरु धारण कर चुके हैं। खिलाडी वही हैं खेल उन्हीं का है और उनके लिए कोई नियम कानून नहीं है स्वछंद हैं जो मर्ज़ी कर सकते हैं। आखिर में सच पर इक ग़ज़ल सुनाते हैं। थोड़े में सभी समझाया है विस्तार की कोई सीमा नहीं है। कथा जारी है खत्म होती नहीं कभी भी। ग़ज़ल का मज़ा लीजिये।

                           ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया "तनहा"


इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का
अब तो होने लगा कारोबार सच का।

हर गली हर शहर में देखा है हमने
सब कहीं पर सजा है बाज़ार सच का।

ढूंढते हम रहे उसको हर जगह , पर
मिल न पाया कहीं भी दिलदार सच का।

झूठ बिकता रहा ऊंचे दाम लेकर
बिन बिका रह गया था अंबार सच का।

अब निकाला जनाज़ा सच का उन्होंने
खुद को कहते थे जो पैरोकार सच का।

कर लिया कैद सच , तहखाने में अपने
और खुद बन गया पहरेदार सच का।

सच को ज़िन्दा रखेंगे कहते थे सबको
कर रहे क़त्ल लेकिन हर बार सच का।

हो गया मौत का जब फरमान जारी
मिल गया तब हमें भी उपहार सच का।

छोड़ जाओ शहर को चुपचाप "तनहा"
छोड़ना गर नहीं तुमने प्यार सच का।

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

बढ़िया लेख 👍