अप्रैल 23, 2019

क्या हमारे नायक छलिया हैं ( कड़वा सच ) डॉ लोक सेतिया

    क्या हमारे नायक छलिया हैं ( कड़वा सच ) डॉ लोक सेतिया

        आपको याद है कलाम साहब ने इक सपना नहीं दिखाया था बल्कि दावा करने की बात की थी 2020 का भारत कैसा होगा। जिनको मालूम नहीं उनकी बेहद कीमती किताब खरीद कर पढ़ सकते हैं। मगर हमारी आदत है कि नेता की हर बात पर तालियां बजाते हैं जय जयकार करते हैं मगर वास्तव में सच नहीं होने पर कुछ नहीं कहते हैं। किसी एक नेता का नाम लिए बिना कह सकते हैं अपनी कही बात सच नहीं होने पर किसी को लाज शर्म का एहसास कदापि नहीं होता है। अभी भी जो सरकार पुराने दावे सच साबित करने में नाकाम रही है भविष्य के सपने बेच कर शायद बार बार सत्ता पाना चाहती है। दावा किया जाता है देश की शान बढ़ने का मगर विश्व में तमाम निष्पक्ष मंचों पर संस्थाओं की रपट में असलियत विपरीत है। गरीबी भूख शिक्षा स्वास्थ्य प्रदूषण जल हवा धरती सभी को लेकर निराशाजनक तस्वीर सामने आती है मगर हम आंखें बंद कर समझते हैं सब ठीक है। ऐसा इसी सरकार ने किया हो ये नहीं है चालीस साल से जनता को छलने को वास्तविकता से उल्ट बताया जाता है और झूठ बेचकर बहलाया जाता है। कहने को अच्छा लगता है आदमी को बड़े बड़े सपने देखने चाहिएं मगर क्या हक़ीक़त से नज़र चुराकर। फ़िल्मी छलिया या किताबी छलिया भा सकता है मगर जनता को छलते रहने वालों को महान समझते रहना हद दर्जे की नासमझी है।

      बहुत देश हमारे साथ आज़ाद हुए मगर आज तस्वीर बदल चुके हैं। जो देश खुद को सारे जहां से अच्छा होने की बात करता है उसको कभी तो अपने आप को देखना चाहिए ताकि अच्छा क्या होना चाहिए समझा जा सके। धरती का दिन मनाने से नहीं उसको बचाने को सार्थक कार्य करने से कुछ संभव है। आज भी हम कुदरत से छेड़ छाड़ करने में कोई कमी नहीं रखते विकास के नाम पर विनाश को बुलावा देते हैं। आज कोई भी नेता देश की और जनता की समस्याओं की बात पर विचार नहीं करता समस्याओं को सुधारना तो क्या उनको बढ़ते देना इनकी चिंता का विषय नहीं है। मगर इनको एक काम बाखूबी आता है छलना हर किसी को। हमने ये किया आपको क्या क्या दिया है ऐसे कहते हैं जैसे बड़े दानी लोग हैं खुद खाली पेट रहते हैं आपको खिलाते हैं जबकि मामला उल्टा है। खुद पर बेतहाशा धन खर्च करना अपने महिमामंडन पर पैसा बर्बाद करना इनको अनावश्यक नहीं लगता है। जिस देश की आधी आबादी भूखी रहती हो गरीबी बदहाली की हालत सुधारने की बात छोड़ राजसी ढंग से रहना लोकतंत्र में बड़ा गुनाह है। कोई भी नेता या दल देश की खातिर या जनता की भलाई की खातिर काम नहीं करता है उनका मकसद अपने लोग अपना दल और अपने पास सब कुछ होना अंबार लगा होना बन चुका है। स्वार्थ में अंधे होकर सत्ता हासिल करने को निम्न स्तर की बातें और आचरण करते हैं। बात कहते हैं मुकर जाते हैं इनका कोई भरोसा कैसे करे जो अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हैं।

       धर्म शायद सबसे बड़ी बाधा बन गया है सही राह दिखाने क्या धर्म खुद धर्म नहीं रहा है। कोई मंदिर मस्जिद मस्जिद गिरिजाघर गुरुद्वारा दीन दुखियों की सहायता नहीं करता अपने खज़ाने भरते हैं और उपदेश संचय नहीं करने का देते हैं। कहीं मुसाफिर को रहने को जगह नहीं मिलती खाना नहीं मिलता ऐसी जगहों पर भी धर्मशाला नहीं बाकायदा रहने का शुल्क लिया जाता है। कुछ एक मंदिर गुरूद्वारे को छोड़ बाकी सब दान से मिली दौलत अपने पास रखने अपनी सुविधाओं पर खर्च करने पर लगाते हैं। बाहर इंसान गर्मी में तड़पते हैं मगर धर्म स्थल के बड़े बड़े भवन कोई भी नहीं बैठा तब भी ए सी चलते रहते हैं ठंडक बनाने को। यही हालत सरकारी दफ्तरों की है सरकारी सुविधाओं का जम कर दुरूपयोग किया जाता है। वीवीआईपी किस संविधान में लिखा है उनका विशेषाधिकार है उनकी खातिर आम जन को परेशानी होना उचित है। इनको जाना है रास्ते बंद बाकी लोगों के लिए और इनके लिए एक दिन में सारी सुविधाएं उपलब्ध होना अपने आप साफ करता है करना चाहें तो सब संभव है मगर करना ही नहीं चाहते। सत्ता पाकर मकसद कुछ भी बदलना नहीं है जो कहते थे कोई नहीं कर रहा आपको भी वही दोहराना है। इतनी भूख सत्ता के विस्तार की बढ़ गई है कि आगे दौड़ पीछे चौड़ की हालत है। सत्ता मिली उस राज्य की बात छोड़ और कहीं सत्ता पाने को कोशिश करने लगते हैं जैसे शासक अपनी जागीर बढ़ाने का कार्य करते थे। आप पांच साल के रखवाले हैं मालिक बन नहीं सकते आपको कर्तव्य पालन की बात याद नहीं रहती है।

     बहुत ऐसे कार्य हैं जिन पर इतना धन खर्च किया जाता है जितने से देश की गरीबी मिटाई जा सकती थी। शिक्षा को बेहतर बनाया जा सकता था , जनता को अच्छी स्वस्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाई जा सकती थी , मगर उस खर्च का कोई फायदा देश को नहीं है। आडंबर करने पर धन बर्बाद करना अपराध है। घोटालों की बात होती है मगर देश में सबसे बड़ा घोटाला सरकारी विज्ञापन हैं जो कुछ लोगों के घर भरने का ही काम करते हैं टीवी अख़बार वालों की बैसाखियां बन गई हैं जिस के बिना ये लूले लंगड़े हो जाएंगे तभी कोई इस घोटाले की बात नहीं करता है। सपने बेचने का घोटाला सरकार ही नहीं बड़े बड़े लोग झूठे विज्ञापन का काम करते हैं अपने नाम का अनुचित फायदा उठाते हैं। किसी को जनता की भलाई से सरोकार नहीं है। दिन भर किसी का चेहरा टीवी पर दिखाने से नकली पहचान मिलती है असली शोहरत वास्तविक कार्य करने से मिलती है और सरकार के विज्ञापन जो नहीं है उसके होने का यकीन दिलाना चाहते हैं। छलते हैं जनता को और जिनको पैसे की भूख कर्तव्य से अधिक महत्वपूर्ण लगती है वो झूठे विज्ञापन दिखलाते हैं सच की बात और जाने किस किस बात का दावा करने के बावजूद भी।

      कई दिन से योग बाबा की खबर नहीं आई , कितनी दौलत जमा कर ली और कहते हैं समाज कल्याण पर खर्च करते हैं , इतना करोड़ों का खज़ाना है कल्याण करने को लोग बहुत हैं जिनको रोटी शिक्षा की ज़रूरत है। कोई बता सकता है इनके योग से , योग किसी का नहीं है पहले से रहा है , कितने रोगी कम हुए हैं।  विश्व स्वास्थ्य संगठन तो भारत में खतरनाक हालत की बात करता है। जाने कितनी सुंदरता बढ़ी है उनके सौंदर्य प्रसाधन उपयोग करने से देश में। छलिया रे। कितने छलिया हैं देश को जनता को छल रहे हैं। छलना इस समय का सबसे बड़ा धंधा बन गया है। गांव की गोरी शहरी बाबू को छलिया कहती थी आया और सब छीन गया चैन करार दिल का , मगर आजकल छलिया बातों से छलते हैं और हम छले जाने की शिकायत भी नहीं करते बार बार छल के शिकार होते है। छलिया नाम बदल आते हैं छलते हैं। दिल्ली मुंबई छलियों की नगरी कहलाती थी अब हर शहर कोई छलिया है। ज़रा सामने तो आ रे छलिये छुप छुप छलने में क्या राज़ है।

    भगवान कभी  छलिया रूप धारण कर आये थे लोग कहते हैं। इधर छलिया हैं जो भगवान बन कर सामने आते हैं भगवान बन नहीं सकते किसी की भलाई नहीं करते रुतबा पाना चाहते हैं।  वाह रे वाह छलिया। 
 

 

1 टिप्पणी:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 23/04/2019 की बुलेटिन, " 23 अप्रैल - विश्व पुस्तक दिवस - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !