जाना था कहाँ आ गये कहाँ ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
ढूंढते पहचान अपनीदुनिया की निगाह में
खो गई मंज़िल कहीं
जाने कब किस राह में
सच भुला बैठे सभी हैं
झूठ की इक चाह में।
आप ले आये हो ये
सब सीपियां किनारों से
खोजने थे कुछ मोती
जा के नीचे थाह में
बस ज़रा सा अंतर है
वाह में और आह में।
लोग सब जाने लगे
क्यों उसी पनाह में
क्यों मज़ा आने लगा
फिर फिर उसी गुनाह में
मयकदे जा पहुंचे लोग
जाना था इबादतगाह में।
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