हक़ नहीं खैरात देने लगे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
हक़ नहीं खैरात देने लगेइक नई सौगात देने लगे।
इश्क़ करना आपको आ गया
अब वही जज़्बात देने लगे।
रौशनी का नाम देकर हमें
फिर अंधेरी रात देने लगे।
और भी ज़ालिम यहां पर हुए
आप सबको मात देने लगे।
बादलों को तरसती रेत को
धूप की बरसात देने लगे।
तोड़कर कसमें सभी प्यार की
एक झूठी बात देने लगे।
जानते सब लोग "तनहा" यहां
किलिये ये दात देने लगे।