अगस्त 20, 2013

POST : 359 हक़ नहीं खैरात देने लगे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हक़ नहीं खैरात देने लगे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हक़ नहीं खैरात देने लगे
इक नई सौगात देने लगे ।

इश्क़ करना आपको आ गया
अब वही जज़्बात देने लगे ।

रौशनी का नाम देकर हमें
फिर अंधेरी रात देने लगे ।

और भी ज़ालिम यहां पर हुए
आप सबको मात देने लगे ।

बादलों को तरसती रेत को
धूप की बरसात देने लगे ।

तोड़कर कसमें सभी प्यार की
एक झूठी बात देने लगे ।

जानते सब लोग "तनहा" यहां
किलिये ये दात देने लगे ।