अगस्त 05, 2017

काश मैं ऐसा नहीं होता ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

            काश मैं ऐसा नहीं होता ( आलेख )

                                    डॉ लोक सेतिया

 कल मुझे व्हाट्सएप्प पर संदेश मिला , जी नहीं संदेश नहीं आमंत्रण इक धार्मिक कथा का श्रवण करने को। कुछ दिन पहले अचानक मंदिर के दर पर उनसे इक मित्र ने मिलवाया था। तभी से उनकी इस आयोजन की तैयारी चल रही थी। अपनी आदत के अनुसार मैंने उनको बता दिया था कि मैं कैसा आदमी हूं , साधु संतों से चर्चा करना चाहता हूं न कि बस जाकर माथा टेकना और उपदेश सुन कर उस उपदेश को समझना नहीं अपनाना नहीं। अब इसको मेरी सनक कह लो या मूर्खता कि ये मैंने कितनी बार किया है और नतीजा वही समझ आया है कि जो उपदेशक हैं खुद उनको अपने उपदेश केवल इक औपचारिकता लगते हैं। मुझे नहीं समझ आया कि किसी धार्मिक किताब को माथा टेकने या किसी के पढ़कर सुनाने से आप कैसे धार्मिक हो जाते हैं अगर उसको समझते ही नहीं अमल करना तो बहुत बाद की बात है। थोड़ा अजीब भी लगा जब मुझे कुछ फोटो भी मिले पहले किये गए इसी तरह के आयोजनों के ठीक विज्ञापन की तरह। तो क्या धर्म भी अब बाजार बन गया है और लोगों को लुभाया जाने लगा है किसी मकसद से। मकसद धर्म तो नहीं हो सकता , अपना विस्तार करना या अधिक से अधिक अनुयायी बनाना और फिर उस से आत्मिक नहीं दुनियावी हित साधना मुमकिन है। यहां मुझे किसी की आलोचना नहीं करनी है , मुझे तो खुद अपनी समस्या बतानी है। 
 
      बचपन से धार्मिक किताबें पढ़ना इक मज़बूरी बन गया था , मेरे दादा जी को भगवत कथा , रामायण आदि को सुनने की चाहत थी और हम संयुक्त परिवार के सभी चौदह भाई बहनों में मैं ही था जिस को दादा जी को इनकार करना नहीं आता था। न जाने क्यों दादा जी ताया जी क्या कोई आस पास का बज़ुर्ग भी मुझे कोई काम कहता तो मैं चुप चाप कर देता बेशक करना नहीं भी चाहता था तब भी। इस तरह बार बार पढ़ते मुझे एहसास होता जैसे जो मैं पढ़ रहा उसके दृश्य मेरे सामने दिखाई देते हैं। और मैं विचित्र कल्पना लोक में रहता था यूं ही सोचता किसी धार्मिक कथा के पात्र के बारे , और सोचने लगता अगर उस ने ऐसा नहीं कुछ और ढंग से किया होता तब ये समस्या नहीं होती। तब घर में साधु संत साधवी आते और मैं उनसे ऐसे सवाल करने लगता। मुझे सब नास्तिक मानने लगते और समझाते ऐसा करना पाप है , मैं पापी हूं इस बात से मैंने कभी इनकार नहीं किया मगर मैं पाप और पुण्य की परिभाषा समझना चाहता था और कई बार जो परिभाषा पढ़ाई जाती उस से असहमत होना चाहता था। मेरी कठिनाई ये थी कि मेरी बात कोई सुनना ही नहीं चाहता था। चिंतन करना केवल भगवा धारण करने से नहीं हो जाता , हम सभी चिंतन करते ही हैं , और जब अपना विवेक आपको कहता हो नहीं जो पढ़ाया जाता वही सच नहीं या पूरा सच नहीं तो आप बिना सहमत हुए कैसे उसका पालन कर सकते हैं। 
 
                       सही था या गलत मगर अभी तक यही किया मैंने , आस पास हर जगह मैंने देखा और समझना चाहा क्या क्या अच्छा है और क्या क्या बुरा है। और क्योंकि लेखक बन चुका था इसलिए साफ लिखने भी लगा निडरता पूर्वक सच समाज का। बस इक इसी ने मुझे बर्बाद और बदनाम कर दिया। ये आदमी किसी का लिहाज़ नहीं करता , सब के सामने कड़वा सच बोलता है। मैं अपराधी बन गया हूं और खड़ा हूं ज़माने की अदालत के कटघरे में , कोई नहीं मेरा पक्षधर जो मुझे बचाये मेरी वकालत करे। मुझे कुछ नहीं मिला सच को समझने और समझाने से , यहां लोग सच और धर्म का अर्थ भी अपनी साहूलियत से निकालते हैं। अब सोचता हूं काश मैं नहीं होता ऐसा बाकी लोगों से इतना अलग और मैं भी जब जो अच्छा लगता करता और बिना सही गलत की परवाह किये खुदगर्ज़ बनकर आराम की ज़िंदगी बिताता। पर अब बदलना सम्भव नहीं है , केवल सज़ा का इंतज़ार है।  आरोप सभी जो भी मुझ पर लगाए स्वीकार हैं , क्षमा की याचना नहीं करनी है , आप बता दो जो भी सज़ा देनी हो। 

 

कोई टिप्पणी नहीं: