अगस्त 17, 2017

इश्क़ कोतवाली 2017 ( व्यंग्य कथा ) डॉ लोक सेतिया

   इश्क़ कोतवाली 2017 ( व्यंग्य  कथा ) डॉ लोक सेतिया 

               कोतवाल साहब का बुलावा आया तो दिल धड़कने लगा न जाने क्या माजरा है। आजकल कुछ पता नहीं चलता कब किस पर क्या इल्ज़ाम लगवा कर थाने में बंद करा दिया जाये। अभी चलना पड़ेगा सिपाही से पूछा कोई वारंट जारी हुआ है , वो हंसने लगा। शायर जी आप भी कमाल करते हैं आपको बुलवाया है कोतवाल जी कोई कवि सम्मेलन करवाना चाहते हैं आप नाहक डर जाते हैं। कविता में तो शेर सा दहाड़ते हैं और थाने के नाम से कांपने लगते हैं वीर रस वाले कवि। कोई बात नहीं अभी थोड़ा सांस ले लो अपनी घबराहट को मिटा लो फिर चले आना साहब के निवास पर। सुनकर डर भाग गया और ख़ुशी का एहसास होने लगा। अब देरी करने का मतलब ही नहीं था। तभी चल दिए साथ हम भी। जाकर देखा तो बहुत हैरान हुए देखकर कोतवाल जी को , देवदास बने हुए थे। हमने पूछा साहब सब कुशल तो है , कहने लगे मत पूछो हमारे दिल पर क्या गुज़री है आज। आओ पहले दो घूंट ज़िंदगी के पी लो , हमने कहा भाई हम शराब नहीं पीते। बोले जानते हैं तभी आपको शुद्ध आयुर्वेदिक वाले दो घूंट साथ देने को दे रहे हैं। हमने कहा भाई उनकी बनाई स्वदेशी वस्तुओं को हम उपयोग नहीं करते मगर कारण नहीं पूछना बड़ी मुश्किल होगी। बाबा जी सरकारी हैं जो भी कहते हैं ठीक है। तब तक कोतवाल जी चार पैग लगा चुके थे और मूड़ में आ चुके थे। शायद उन्हें याद नहीं था हमको किस बात को बुलवाया है। कहने लगे भाई आप तो लेखक बंधु कोमल हृदय होते हैं सब की पीड़ा समझते हैं , मेरी दर्द भरी कहानी सुनोगे तो आंसू रोक नहीं पाओगे। तभी इक और सिपाही आकर बोला बुला आया हूं आपकी मुहब्बत को। साथ वाले कमरे में हैं जाकर मिल लो उससे।

              कोतवाल बोले कवि तुम भी साथ चलो आज देख लो हम कोतवाल भी इश्क़ करते हैं कोई पत्थर दिल नहीं हैं। ये पत्थर दिल तो वो हैं जो समझते ही नहीं हमारी मुहब्बत को हमारी मज़बूरियों को। देख लो ये इक कोठे वाली है और हमें शहर के कोतवाल को ही कोठे पर आने नहीं देती है। कितना बड़ा ज़ुल्म है इक बेचारे आशिक़ पर।  आज तुम ही बताओ कैसे इस रूठी महबूबा को मनाया जाये , कोई ग़ज़ल कोई कविता लिखनी आती नहीं हमें। इस की खातिर कवि सम्मेलन करवाना है और जैसे भी हो इसको मनाना है। अब उस अबला नारी से चुप नहीं रहा गया बोली कोतवाल जी बस करो और कितना झूठ बोलेगे सरकार की तरह। मैं तो आपकी गुलाम हूं देश की जनता जैसे नेताओं की गुलाम है। भला आपको नाराज़ कर कोई शहर में रह सकता है , हर कोठे से आपको रिश्वत भी मिलती है और आपकी हर चाहत भी पूरी होती है। फिर भी आपने इतना बड़ा झूठ बोला कि आपको कीमत लेकर भी बदले में नहीं मिलता कुछ हम सब से। अब इतना बड़ा इल्ज़ाम बेवफ़ाई का कोई कैसे सहे। कवि तुम ही सुन लो मेरी आपबीती और बताओ मैं क्या करूं जियूं या मरूं। सब लूट कर भी कोतवाल निर्दोष मासूम और खुद तबाह होकर भी हम गुनहगार मुजरिम। अदालत इनकी गवाह इनके फैसला करने वाले भी यही और इंसाफ की बात कौन करे।

                    अपनी कहानी सुनाने लगी जब तो कोतवाल की ज़ुबान बंद हो गई। कहने लगी मुझे इश्क़ के झांसे में फंसाया और सालों तक अपनी हवस मिटाते रहे। किसी और से शादी की और मुझे रखैल से कोठे वाली तक का सफर तय करवाते रहे। अपनी तरक्की की सीढ़ियां मुझे कुचल कर चढ़ते गए। कभी सोचा ही नहीं जो दो उपहार मुझे दिए इक बेटा इक बेटी के रुप में उनका क्या हाल है। खुद अपनी औलाद को जाने किस  की औलाद हैं बताते रहे। मुझ से दिल भर गया तो हर दिन किसी कोठेवाली के घर जाते रहे। जाने किस से इक जानलेवा रोग ले लिया और किस किस को रोगी बनाते रहे। अब जब सब को पता चला और सब कोठेवालियों के दरवाज़े बंद हुए तब मेरे दर पर दस्तक देने आते रहे। सब धन दौलत भी छीन लिया मुझ से किसी न किसी तरीके से। अब चाहते मुझे भी अपना रोग देकर और एहसान करना , मुझे भी आसान हो जाता इस तरह जीने से तो मरना। मगर क्या करूं उनका जिनका कोई दोष नहीं है , इस पिता को बच्चों का कोई होश नहीं है। निज़ाम है इन्हीं का तलवार भी इनकी है। कत्ल होने को इनकार भी नहीं है। पर इन आशिकों से कोई जाकर कैसे कहे आज खुद ही बिके हुए हो तुम सारे के सारे ही। जो खुद बिका वो होता खरीदार नहीं है।

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