बर्तनों की तकरार ( सत्ता की रसोई ) डॉ लोक सेतिया
राजनीति का खुला बाज़ार है असलियत छुपी हुई है झूठी नकली तकरार है हर बंदा हर साज़ो सामान है बना हुआ किसी का चाटुकार है ये सबसे बड़ा राजनीति का इक हथियार है । बैरभाव है सबके मन में नहीं किसी को कोई प्यार है लेन देन की बात है भाई कौन किसी का करता ऐतबार है । सरकारी दफ़्तर इक रसोई है खाना स्वादिष्ट तैयार है कुछ बर्तन आपस में टकराये हैं ये राजनीति के घुंघरू हैं कि पायल की झनकार है । पतीला कड़ाही का झगड़ा है कड़छी चिमटा कटोरी थाली बर्तन पर बहस हो रही मैं मैं - तू तू कौन छोटा कौन बड़ा सरकार है असली बात कुछ और है जिसकी जूतम पैजार है । सब का खेल तमाशा है क्या जीत क्या हार है इक थाली के बैंगन हैं सबको टमाटर दरकार है । पतीले का आरोप है कड़ाही किसलिए मेरे बराबर है मुझे नीचे दिखलाती है ये बावर्ची की साज़िश है बस तभी इतराती है । ख़ामोश कड़ाही सोच रही है पतीले की ये कैसी मानसिकता है ये नारी को छोटा समझता है अहंकारी है साथ साथ नहीं रहना चाहता झूठे बहाने बनाता है शैल्फ़ पर दूरी रखता है । ये सब कुर्सी का किस्सा है बिल्लियां चूहों को तरस रही बंदर के हाथ तराज़ू है उसका इंसाफ़ वही पक्का है बराबर करने को इक इक कर सब कुछ खाता जाता है जो कोई उसकी तरफ देखे बंदर गुर्राकर डराता है । बावर्ची इक तमाशाई है सच बोलूं तो हरजाई है आधा कच्चा आधा पक्का कुछ कड़वा कुछ ज़्यादा नमक डाल सब का करता कबाड़ा है ये दस्तरख़ान बन गया कबड्डी का अखाड़ा है । चम्मच कटोरी गिलास सब में कायम भाईचारा है थाली और चिमटा झगड़ पड़े जो भी जीता सब हारा है । मनमुटाव सिर्फ़ इक बहाना है सबको हलवा खुद खाना है ये सबसे बड़ा कमाल है कचहरी है इक थाना है हलवा अभी बनाया नहीं उसका बजट पारित करवाना है । जिस में सभी ख़लनायक हैं सबको सबसे बचाना है जब सैंया जी कोतवाल हैं फिर काहे घबराना है ये चोर सिपाही का खेल नहीं ये कुछ अलग अफ़साना है । सब को गरूर है यही सभी अंधे और वो काना है अंधों में काना राजा का इतिहास वही दोहराना है चोरों की बस्ती में चुनाव लड़ना जीतना हरवाना है । किसी को कुछ भी करना नहीं जनता को उल्लू बनाना है टके सेर भाजी टके सेर खाजा अंधेर नगरी चौपट राजा किस्सा बड़ा पुराना है सबका अपना याराना है घर को मैदान बनाना है ईंट से ईंट बजाना है ।
खोटा खरा कोई नहीं सब के सब ताश के पत्ते हैं जोकर जिस की जेब में है ऊपर तक जिस के रिश्ते हैं ये बाज़ी उसी की चाल है देश सेवा की टकसाल है जूतों में बंटती दाल है सियासत का ऐसा हाल है । इक सूखे की बाढ़ आई है चुप रहना राम दुहाई है जनता क्या है बस बकरा है हर शासक बना कसाई है । ये सब शतरंज के मोहरे हैं कागज़ी तलवारों से लड़ी जाती नित नई नई लड़ाई है । चलो बात को समझते समझाते हैं इक पुरानी कविता दोहराते हैं ।
सवाल है ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया
जूतों में बंटती दाल है
अब तो ऐसा हाल है
मर गए लोग भूख से
सड़ा गोदामों में माल है ।
बारिश के बस आंकड़े
सूखा हर इक ताल है
लोकतंत्र की बन रही
नित नई मिसाल है ।
भाषणों से पेट भरते
उम्मीद की बुझी मशाल है
मंत्री के जो मन भाए
वो बकरा हलाल है ।
कालिख उनके चेहरे की
कहलाती गुलाल है
जनता की धोती छोटी है
बड़ा सरकारी रुमाल है ।
झूठ सिंहासन पर बैठा
सच खड़ा फटेहाल है
जो न हल होगा कभी
घोटालों का देश है
मत कहो कंगाल है
सब जहां बेदर्द हैं
बस वही अस्पताल है ।
कल जहां था पर्वत
आज इक पाताल है
देश में हर कबाड़ी
हो चुका मालामाल है ।
बबूल बो कर खाते आम
हो रहा कमाल है
शीशे के घर वाला
रहा पत्थर उछाल है ।
चोर काम कर रहे
पुलिस की हड़ताल है
हास्य व्यंग्य हो गया
दर्द से बेहाल है ।
जीने का तो कभी
मरने का सवाल है ।
मर गए लोग भूख से
सड़ा गोदामों में माल है ।
बारिश के बस आंकड़े
सूखा हर इक ताल है
लोकतंत्र की बन रही
नित नई मिसाल है ।
भाषणों से पेट भरते
उम्मीद की बुझी मशाल है
मंत्री के जो मन भाए
वो बकरा हलाल है ।
कालिख उनके चेहरे की
कहलाती गुलाल है
जनता की धोती छोटी है
बड़ा सरकारी रुमाल है ।
झूठ सिंहासन पर बैठा
सच खड़ा फटेहाल है
जो न हल होगा कभी
गरीबी ऐसा सवाल है ।
घोटालों का देश है
मत कहो कंगाल है
सब जहां बेदर्द हैं
बस वही अस्पताल है ।
कल जहां था पर्वत
आज इक पाताल है
देश में हर कबाड़ी
हो चुका मालामाल है ।
बबूल बो कर खाते आम
हो रहा कमाल है
शीशे के घर वाला
रहा पत्थर उछाल है ।
चोर काम कर रहे
पुलिस की हड़ताल है
हास्य व्यंग्य हो गया
दर्द से बेहाल है ।
जीने का तो कभी
मरने का सवाल है ।
ढूंढता जवाब अपने
खो गया सवाल है ।
1 टिप्पणी:
👍👍👌👌... बढ़िया
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