ख़ुश्क आंखें हैं जुबां ख़ामोश है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
ख़ुश्क आंखें हैं जुबां ख़ामोश है
हो गई हर दास्तां ख़ामोश है ।
रात जैसे दिन हैं सभी लगने लगे
हो गया अपना जहां ख़ामोश है ।
बात करने को कई दिल में अभी
हम भी चुप वो मेहरबां ख़ामोश है ।
हैं बड़े साये नहीं आवाज़ पर
चुप ज़मीं है आस्मां ख़ामोश है ।
सरसराहट सी सुनी हमने यहां
हर गली हर इक मकां ख़ामोश है ।
धूल भी होने लगी बेचैन क्यों
रास्ते का कारवां ख़ामोश है ।
तोड़ दिल को पूछते ' तनहा ' बता
हो गया क्यूं जानेजां ख़ामोश है ।
1 टिप्पणी:
बढ़िया ग़ज़ल सर👌
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