ज़हर खुद ही आकर पिला दे कोई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया
ज़हर खुद ही आकर पिला दे कोई
मुहब्बत करने की सज़ा दे कोई ।
नहीं कोई शिकवा ग़मों का फिर भी
कहां रहती खुशियां बता दे कोई ।
गुज़ारी हमने उम्र हंसते गाते
रहें चुप हम कैसे सिखा दे कोई ।
मेरे सीने में आग जलती कब से
कभी आ कर उसको बुझा दे कोई ।
यही दिल की इक आरज़ू है बाक़ी
मुझे गा कर लोरी सुला दे कोई ।
अंधेरों ने बर्बाद कर दी दुनिया
बुझे सारे दीपक जला दे कोई ।
लिखा जो तुमने उम्र सारी ' तनहा '
नहीं कोई पढ़ता मिटा दे कोई ।
1 टिप्पणी:
बहुत खूब सर👍
एक टिप्पणी भेजें