फ़क़ीर से अमीर होने तक ( बेढंगी चाल ) डॉ लोक सेतिया
आपने हम सभी ने सोशल मीडिया पर अनगिनत वीडियो या अन्य संदेश देखे सुने पढ़े शायद समझे भी होंगे , किसी किताब में भूल जाने और क्षमा करने की भी बात अवश्य पढ़ाई गई होगी पर क्या वास्तव में ऐसा संभव है कोई नहीं जानता है । बचपन में जाने कौन सी किताब थी जिस में कुछ अलग ढंग से कहानी की तरह समझाया गया था कि सफलता पाने को लोभ लालच में अंधे होकर या विवेकहीन होने पर व्यक्ति उचित अनुचित की परवाह नहीं कर जो भी चाहते हैं हासिल करने को सब कर गुज़रते हैं । देश राज्य समाज में प्रतिष्ठा मिल जाती है लोग झुक कर सलाम करते हैं मगर कभी कभी दिन में इक पल को अथवा रात को नींद से जाग कर अनजाना सा डर सताता है । कभी सपना आता है जितना हासिल किया धन दौलत ज़मीन जायदाद सब जैसे किसी कारण समाप्त हो गए हैं और कभी ये सपना आता है जिन गुनाहों का किसी और को तो क्या खुद को पता नहीं था कि अपने कारण कितने लोगों की ज़िंदगी का सब सुःख चैन लुट गया उनका सबको पता चल गया और छुपते फिरते हैं जगह नहीं मिलती है । ये इक अपराधबोध होता है जिस के साथ जीना सर पर भारी बोझ की गठड़ी की तरह है जो अनुचित तरीके से कमाई है मूलयवान है फैंक नहीं पाते और साहस ताकत नहीं उठा इक कदम आगे बढ़ाने को क्योंकि आत्मा खुद को कचौटती रहती है । ज़िंदगी का सफ़र कुछ ऐसा ही है कोई फ़क़ीर से अमीर होना चाहता है फिर इक दिन अमीर से फ़क़ीर बनना भी चाहे तो ज़मीर पीछा नहीं छोड़ता है ।
बात को अन्यथा और व्यक्तिगत नहीं लें निवेदन है ये अधिकांश होता है मन अपने भीतर की भावनाओं से नज़रें चुराता है और व्यक्ति अपने स्वभाव के विपरीत आचरण करता है । किसी को लूटकर फिर धार्मिक कर्म दान करना धोखा दे कर किसी मंदिर मस्जिद जाकर भूल की माफ़ी मांगना वास्तव में सिर्फ आडंबर होता है क्योंकि फिर वही बार बार दोहराते हैं अपना स्वभाव नहीं बदलते हैं । विचार करें अगर मैंने आपको घायल किया हो अकारण आपका नुकसान किया हो अपनी किसी ज़रूरत की खातिर और आप बेबस हो सब चुपचाप सहते रहे हों तब मुझे धार्मिक अनुष्ठान मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे जा पूजा पाठ करते देख क्या अनुभव करेंगे । जिस को इंसान में ईश्वर नहीं दिखाई देता उसको धार्मिक विचार नैतिक आदर्श मूल्यों से कोई मतलब नहीं होता है । आस्तिक होने भगवान पर विश्वास रखने के लिए किसी पूजास्थल किसी तीर्थ यात्रा की आवश्यकता नहीं , सब जानते हैं मन चंगा तो कठोती में गंगा । विश्लेषण करें तो समझ आएगा जितना समाज में ईश्वर धर्म को लेकर दिखावा प्रचार प्रसार बढ़ रहा है उतना समाज का उत्थान या उद्धार नहीं दिखाई देता बल्कि पतन की ओर अग्रसर है हमारा समाज । सोशल मीडिया कोई पावन स्थान हर्गिज़ नहीं है गंदगी भरी पड़ी है क्या आप घर में किसी की तस्वीर उस जगह रखते हैं जहां दुनिया भर का कूड़ा रखा हो , नहीं करते तो देवी देवताओं की तस्वीर कहां नहीं होनी चाहिए बताने की आवश्यकता नहीं है ।
कुछ लोगों ने इस का उपयोग किया है नासमझ लोगों को गुमराह किया है कि उनकी शरण में आओगे तो आपको भवसागर से पार लगवा देंगे । आपने कभी कश्ती चलाने वाले को ऐसा कहते नहीं सुना होगा मांझी और पतवार तूफ़ान और मझधार सब से भरोसेमंद होता है खुद हौंसले से तैर कर पार जाना । आजकल नाख़ुदा कश्ती को खुद डुबोते भी हैं रहबर रास्ते से भटकाते भी हैं रहनुमा कारवां लुटाते भी हैं । हमने अभी सही गलत अच्छे बुरे को ठीक से पहचानना नहीं सीखा है जो हमारी मनचाही बातें करते हैं हम उनके पीछे - पीछे चलने लगते हैं और खबर ही नहीं होती कब किसी के चाहने वाले समर्थक प्रशंसक मानसिक दिवालियापन के शिकार हो कर तर्क से उचित अनुचित को समझना छोड़ भेड़चाल चलने लगते हैं । चाहे कोई व्यक्ति हो धर्म उपदेशक या कोई भी राजनैतिक विचारधारा सभी हमेशा सही नहीं होते हैं और जब बात समाज की धर्म की भगवान की या लोकतंत्र की हो तब सच को सच और झूठ को झूठ कहना हमारा कर्तव्य बन जाता है ख़ामोशी से अपराध का साथ देना किसी दिन अपराधबोध बन जाता है जब गुनहगार बच जाते हैं और बेगुनाह सूली चढ़ाए जाते हैं । आख़िर में इक ग़ज़ल इस विषय से मेल खाती हुई पेश है ।
ग़ज़ल
फैसले तब सही नहीं होते
बेखता जब बरी नहीं होते ।
जो नज़र आते हैं सबूत हमें
दर हकीकत वही नहीं होते ।
गुज़रे जिन मंज़रों से हम अक्सर
सबके उन जैसे ही नहीं होते ।
क्या किया और क्यों किया हमने
क्या गलत हम कभी नहीं होते ।
हमको कोई नहीं है ग़म इसका
कह के सच हम दुखी नहीं होते ।
जो न इंसाफ दे सकें हमको
पंच वो पंच ही नहीं होते ।
सोचना जब कभी लिखो " तनहा "
फैसले आखिरी नहीं होते ।
बेखता जब बरी नहीं होते ।
जो नज़र आते हैं सबूत हमें
दर हकीकत वही नहीं होते ।
गुज़रे जिन मंज़रों से हम अक्सर
सबके उन जैसे ही नहीं होते ।
क्या किया और क्यों किया हमने
क्या गलत हम कभी नहीं होते ।
हमको कोई नहीं है ग़म इसका
कह के सच हम दुखी नहीं होते ।
जो न इंसाफ दे सकें हमको
पंच वो पंच ही नहीं होते ।
सोचना जब कभी लिखो " तनहा "
फैसले आखिरी नहीं होते ।
1 टिप्पणी:
Shandar lekh, bdhiya ghzl
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