जनवरी 07, 2021

नाम शोहरत काम नहीं अंजाम नहीं ( विवेचना ) डॉ लोक सेतिया

   नाम शोहरत काम नहीं अंजाम नहीं ( विवेचना ) डॉ लोक सेतिया

सबसे पहले इस आलेख को किसी व्यक्ति के पक्ष विपक्ष से जोड़कर नहीं निरपेक्ष भावना और निष्पक्षता से विचार करें। पिता जी ने साहस पूर्वक महान आदर्श स्थापित किया उसकी बात का आदर करना अच्छा है लेकिन उसके परिवार के सदस्यों से साक्षत्कार लेना परिवारवाद को बढ़ावा देना कितना सही है। और उनका  ऐसा जतलाना जैसे दादा जी की सोच विचारधारा उनकी विरासत है और उनको लगता है जो सरकार कर रही है वो महान कार्य है और जो उसका विरोध करते हैं उनको कुछ भी समझ नहीं है ये कितना अनुचित है खासकर तब जब उन लोगों ने अपने पिता दादा की तरह देश समाज की समस्याओं पर कुछ भी किया नहीं बस उनके नाम को भुनाया है और वर्षों उनकी शोहरत का लाभ उठाया और सत्ता के पक्षकार बनकर अपने उन महान पूर्वजों की छवि को धूमिल कर रहे हैं जिन्होंने बिना किसी विरासत अच्छे कीर्तिमान स्थपित किये अपनी काबलियत से और ऐसा करना कोई उपकार नहीं बल्कि अपना कर्तव्य समझा था। यकीनन उनकी आत्मा घायल होगी जब उनके वारिस कहलाने वाले उनके किये देश समाज के भलाई के कार्य की कीमत हासिल करने की बात करते हैं। ये बेहद खेदजनक विषय है कि ऐसे ऊंचे कद वाले महान व्यक्ति के वारिस इतने बौने होते हैं। 
 
दौलत ताकत शोहरत सत्ता मिलना ही सब कुछ नहीं होता है। महत्वपूर्ण ये होता है कि ऐसा मिलने पर किस ने क्या उपयोग किया कैसे उसका सार्थक इस्तेमाल किया अथवा निरर्थक ढंग से उपयोग कर साबित किया कि कुछ पाकर भी खुद को सही हकदार नहीं बना पाए। शायद सभी कभी न कभी सोचते हैं कि अगर उनको अवसर मिले तो दुनिया समाज को बदल कर बेहतर बना सकते हैं। लेकिन वास्तव में जब किसी को कर दिखाने को अवसर मिलता है तब अपनी सोची बात को भूलकर कुछ भी अच्छा करने की जगह और ही करने लगते हैं। उद्दारहण के लिए किसी को शासन पैसा ताकत विरासत में मिली मगर जब उसने समाज में बदहाली गरीबी भूख देखी तब अपने अधिकारों का मनमाना उपयोग अपने ऐशो आराम से करने को अनुचित मानकर देश समाज को अपना जीवन समर्पित किया। ऐसे लोग शोहरत नहीं चाहते महान कहलाने की चाहत नहीं रखते केवल उनकी मानवीय संवेदना उनको कर्तव्य निभाने को सही दिशा दिखलाती है। 
 
अब इक दूसरा उद्दाहरण समझते हैं किसी को  विरासत में नहीं मिला सत्ता और शासन के अधिकार , साधनहीन लोगों ने उस पर भरोसा किया कि वो व्यवस्था को बदलेगा और ख़ास और आम गरीब और अमीर की बढ़ती खाई को मिटाएगा। क्योंकि उसने गरीबी और बदहाली को करीब रहते देखा है उसको वंचित वर्ग का दर्द महसूस होगा। लेकिन बड़े पद पर पहुंचते ही उसका ध्यान अपनी इच्छाओं और मनसूबों को हासिल करने और तमाम ऐशो आराम और सुख सुविधाओं का लुत्फ़ उठाने तथा अपना गुणगान करवाने को महत्व देता है अर्थात उसकी मानवीय संवेदना मर जाती है। तब ऐसे लोग मौज मस्ती में पागल होकर लोगों के भरोसे यकीन को ध्वस्त कर खुद को विश्वास के काबिल नहीं होने का सबूत देते हैं। हमारी बदनसीबी ये भी है कि हम हीरे और पत्थर का अंतर समझने में असफल रहते हैं। हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती है। हमने पीतल को सोना समझा ये हमारी भूल थी। पीतल पर सोने की पॉलिश करने वाले आजकल जोहरी बने बैठे हैं।