जनवरी 02, 2021

आपके बादशाह का महल ( व्यंग्य कथा ) डॉ लोक सेतिया

     आपके बादशाह का महल ( व्यंग्य कथा ) डॉ लोक सेतिया 

सरकार को बेपनाह मुहब्बत हो गई है उसने किसी एक गांव नगर में नहीं देश भर में अपने ख़्वाबों का इक महल बनवाया है। महल की ऊंची ऊंची दीवारें हैं अनारकली को जिस में रहना है और बादशाह के दरबार में उनके लिए नाचना है उनके ख़ास दरबारी दोस्तों का भी दिल बहलाना है। आशिक़ हैं अपनी महबूबा को समझा रहे हैं मान जाओ तुम्हारी ख़ुशी इसी में है। ये कानून की बेड़ियां तुम्हारे लिए गहने हैं सजने संवरने को और बंदीघर की दीवारों और अंधेरे कमरों की खिड़कियों की सलाखों को अपना नसीब समझ कर इनसे दिल लगाना है। अब तुझे नहीं कुछ बेचने को किसी मंडी में जाना है खरीदार को खुद आकर तुझसे सौदागर की तरह अच्छा भाव लगाना है। जिस के हाथ बिक जाओ उसको खुदा समझना मनाना है जो वादा किया वो निभाना है। ख़ुदकुशी नहीं करनी है घुट घुट कर जीना मर जाना है। ये सच्चा प्यार है भले हमारा कारोबार है हमारा जिनसे पुराना दोस्ताना है उन्हें देवार जी बुलाना है भाभी का रिश्ता सुहाना है खुलकर हंसना हंसाना है। दर्द में मुस्कुराना है नहीं चलता कोई बहाना है हमको सब खाना तुझको खिलाना है बचा हुआ खाकर शुक्र मनाना है। 
 
कांटेदार तारों से घिरा हर गरीब मज़दूर का ठिकाना है फुटपाथ जैसा खुले आसमान में खेत खलियान में जो आशियाना है। दूर दूर तलक नवाबज़ादों का दौलतखाना है जिनका हर पल मौसम आशिक़ाना हैं। नवाबी शान जश्न हर दिन मनाना है झूमना नाचना मस्ती का माहौल बनाकर दिखाना है कौन जाने कब तक दुनिया में आबो-दाना है। चार दिन की है ज़िंदगी फिर कहां कोई ठिकाना है दो गज़ ज़मीन भी कुए यार में मिले न मिले ज़फ़र ये किसने जाना है। आपको बादशाह का महल दिखाते हैं पहले दस्तावेज़ अपने होने का बनवाते हैं दरबान को कुछ समझते कुछ समझाते हैं हाथ जोड़ नाम कोई लेते हैं किवाड़ खुलवाते हैं। किले की कितनी ऊंची मज़बूत दीवारें हैं और हर मोड़ पर बनी मीनारें हैं। फिर इक खौलता पानी का दरिया है बस गुज़रने का छोटा सा पुल ही ज़रिया है। ये लगती भूल भुलैया है चक्की पीसती पत्थर की मूरत सबकी धरती मईया है। 
 
    तीन फेरों का अजब बंधन बनाना है खुद क़ातिल को मसीहा बताना है। जाल सय्याद का बुलाता है पंछियों को दाना डालकर फंसाता है। पिंजरे में क्या परिंदा चहचहाता है पर कट गए तब पछताता है कौन मुफ़्त में कुछ खिलाता है। कितने अलग अलग नाम के दुकानदार हैं बाज़ार अपना सजाये बैठे हैं। चेहरा कोई समझ नहीं आता है सभी मुखौटा लगाए बैठे हैं डरता है हर कोई ये नज़ारा है कमान पर तीर चढ़ाये बैठे हैं हम शिकार होने आये हैं वो निशाना लगाए बैठे हैं। कह रहे हैं देर से आप आये कब से पलकें बिछाये बैठे हैं। तीर हाज़िर है तलवार भी है ज़हर पीना नहीं इकरार भी है ज़ख्म खाकर उफ़ नहीं करते इतनी जल्दी कभी नहीं मरते। बादशाह मरहम लगाते हैं पर ज़ख्म को नासूर बनाने के बाद कुछ घाव भरा नहीं करते सभी ऐसे मरा नहीं करते। उनको हर जगह बनाना है कब्रिस्तान उनका होगा वही निशान। ताजमहल चीज़ क्या है बादशाह दिखलाएगा है उसका अपना जहान।

1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर व्यंग्य।
बधाई हो आपको।