बुरा हूं मगर इतना बुरा नहीं ( ब्यान अर्ज़ है ) डॉ लोक सेतिया
मैंने कब कहा कि मैं अच्छा हूं , बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना , मुझसे बुरा न कोय। लेकिन इतना भी बुरा नहीं जितना साबित किया गया मुझको। जुर्म करता तो सज़ाएं मंज़ूर भी कर लेता पर बेगुनाही को भी जुर्म समझ सूली पर चढ़ाना भला कैसे चुपचाप इंसाफ़ समझता ज़ुल्म को। क़ातिल को दुआ देने की रस्म आखिर कोई कब तक निभाए। बात मेरी भी पहले सुनलो फिर सज़ा दो मेरे गुनाहों की। दोस्ती को ईबादत समझा जुर्म तो है इंसानियत को धर्म माना बगावत ही तो की है झूठ के सामने सर नहीं झुकाया सच की ख़ातिर जान तक दे सकता हूं सियासत से अदावत ही तो है। ज़माना हर रोज़ बदलता है चाल अपनी हम नहीं रुकते न दौड़ते न कभी थकते चलते हैं अपनी रफ़्तार से आदत ही तो है। हम तो चलाते हैं कलम शमशीर से डरते नहीं , कहते हैं जो बात कहकर अपनी बात से मुकरते नहीं। जाने कैसे समाज की बनी बनाई आसान राहों से अलग नई रह बनाकर चलने की चाह दिल दिमाग़ पर सवार हुई और कांटो पर तपती ज़मीन पर पत्थरीली राहों बढ़ता रहा। सच का दर्पण समाज का आईना और अभिव्यक्ति की आज़ादी के झंडाबरदारों से निडरता पूर्वक आवाज़ उठाने का सबक सीख लिया तो वापस मुड़कर नहीं देखा जबकि इन सभी बातों का दम भरने वाले खुद बाज़ार में बिकने लगे ज़मीर को मारकर। मैंने उन्हीं से सवाल पूछने का जुर्म भी किया है। बिका ज़मीर कितने में जवाब क्यों नहीं देते , सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते। जुर्म-बेलज्ज़त साहित्य समाज की सच्ची तस्वीर दिखलाना कर बैठे और हर किसी की निगाह में खटकने लगे हैं।
चाटुकारिता करना नहीं पसंद और सत्ता से टकराना उनकी वास्तविकता और इश्तिहार का विरोधाभास सामने लाना तलवार की धार पर कांच के टुकड़ों पर चलना जैसा होना ही था। सीता की तरह अग्निपरीक्षा से गुज़रना पड़ता है कौन किस से फ़रियाद करे गुनहगार बच जाते हैं बेगुनाह फांसी चढ़ते हैं। फैसले तब सही नहीं होते , बेगुनाह जब बरी नहीं होते। जो न इंसाफ़ दे सकें हमको , पंच वो पंच ही नहीं होते। सोचना ये लिखने से पहले , फैसले आख़िरी नहीं होते। उसको सच बोलने की कोई सज़ा हो तजवीज़ , 'लोक ' राजा को वो कहता है निपट नंगा है। अपराध है राजा नंगा है बोलना कहानी पुरानी अभी तक हक़ीक़त है। ये सभी अल्फ़ाज़ ग़ज़ल के हैं मेरी लिखी हुई , पहली कविता की शुरुआत जिन शब्दों से हुई उनकी बात करते हैं। पढ़कर रोज़ खबर कोई मन फिर हो जाता है उदास। कब अन्याय का होगा अंत , न्याय की होगी पूरी आस। कब ये थमेंगी गर्म हवाएं , आएगा जाने कब मधुमास। कैसी आई ये आज़ादी , जनता काट रही बनवास। ये तहरीर है इक़बाल ए जुर्म है। मैंने उनको आईना दिखाने की जुर्रत की है जो आईनों का बाज़ार लगाकर दुनिया को दिखाते हैं बदशक़्ल है मगर खुद अपने आप को नहीं देख सकते । अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग , आईने से यूं परेशान हैं लोग। शानो-शौकत है वो उनकी झूठी , बन गए शहर की जो जान हैं लोग। मैंने अपना जुर्म कबूल कर लिया है मुश्क़िल उनकी है जिन्होंने कटघरे में खड़ा किया है उन नाख़ुदाओं ने कश्ती को डुबोया है। चंद धाराओं के इशारों पर , डूबी हैं कश्तियां किनारों पर। हमे सूली चढ़ा दो हमारी आरज़ू है ये , यही कहना है लेकिन मुझे कहना नहीं आता।
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