दिसंबर 05, 2021

इक कलमकार की चिंता ( पाठक की तलाश ) डॉ लोक सेतिया

   नहीं मालूम मुलाक़ात कैसे हो ( लिखा जिनके लिए जीवन भर ) 

          इक कलमकार की चिंता ( पाठक की तलाश ) डॉ लोक सेतिया 

जैसे इक ईबादत इक परस्तिश इक सच्ची मुहब्बत होती है कुछ उसी तरह मैंने जीवन भर लेखन कार्य किया है निःस्वार्थ बिना किसी फायदे नुकसान की चिंता किए। मिलेगा क्या या कुछ भी हासिल नहीं होगा कभी इस पर विचार नहीं किया। पहले पहले अखबार पत्रिका में छपने की चाहत रहती थी धीरे धीरे उस पर ध्यान देना छूट गया जब लिखना इक जूनून बन गया ज़रूरत बन गया मज़बूरी है लिखे बगैर चैन नहीं आता। जैसे कोई खेत में ज़मीन तैयार करता है फसल बोता है पकने पर जिनको ज़रूरत है पहुंचाने को मंडी में सस्ते महंगे दाम बेच आता है लेकिन कभी ये भी होता है जिनको सबसे अधिक ज़रूरत होती है उन्हीं तक अनाज नहीं पहुंचता और अनाज कहीं गोदाम में सड़ता है और कहीं लोग भूखे रह जाते हैं। साहित्य कला की कोई मंडी होती तो नहीं ये कोई बाज़ारी चीज़ नहीं अनमोल वस्तु है दाम चुकाना मुमकिन नहीं लेकिन तब भी इक कारोबार इक बाज़ार बना हुआ है जहां चमकती चीज़ सोना हीरा जवाहरात बनकर खरीदी बेची जाती है। कला का कोई ऐसा मंदिर ढूंढना होगा जहां नाम शोहरत और बाज़ारी तौर तरीके से वाक़िफ़ नहीं जो रचनाकार उनको कीमत नहीं कम से कम उन लोगों से मुलाक़ात तो हो जिन पाठक वर्ग की खातिर उस की कलम तपस्या करती रही। आज ये खुद अपने लिए लिख रहा हूं जब सालों लिखने के बाद किताब छपवाने का कार्य करने लगा हूं। शायद बहुत लिखने वालों की यही चिंता रहती होगी पाठक की तलाश पढ़ने वालों से सीधा संवाद कैसे कायम हो। 
 
पुस्तक छपवाने का फैसला लेना आसान नहीं रहा है इक बड़ा लंबा रास्ता तय किया है खुद अपनी डगर बनाना कोई खालाजी का घर नहीं है। कितने काफ़िले बने कितने हमराही बन चले साथ बिछुड़ते रहे लघुकथा क्या कहानी भी नहीं उपन्यास लिखना होगा। मेरे बस की बात नहीं फिर भी पाठक की तलाश का सफर कैसा था बताना तो पड़ेगा। कोई बीस साल पहले मुलाकात की बड़े नाम वाले शानदार साहित्यकार से दिल्ली में। पूछा आप महान कथाकार हैं किताबें भी छापने का कारोबार करते हैं मुझे सलाह दें ग़ज़ल की किताब छपवाना उचित होगा। जवाब हैरान करने वाला था , हिंदी में कौन पढ़ता है अपनी तसल्ली को पैसे खर्च कर छपवा जान पहचान के लोगों को उपहार दे देते हैं। अख़बार पत्रिका में समीक्षा खुद ही किसी से लिखवा भेजते हैं साहित्य अकादमी में निदेशक से मधुर संबंध बना कर नाम शोहरत ईनाम पुरूस्कार हासिल कर समझ लेते हैं लिखना सफल हुआ। मैंने कहा आपकी मेहरबानी खुल कर वास्तविकता समझाई लेकिन मेरा मकसद ऐसा हर्गिज़ नहीं है ये शोहरत नाम ईनाम पुरूस्कार नहीं चाहता उद्देश्य सार्थक सृजन है जो साहित्य में रूचि रखने वाले पाठक तक बात पहुंचे ताकि समाज की वास्तविकता उजागर होने एवं बदलाव लाने में उपयोगी हो। 
 
लिखने वाले कितने लोगों से मिलते मिलते लगने लगा साहित्य के नाम पर अधिकांश का ध्येय समाज की वास्तविकता और विसंगतियों को उजागर कर आईना दिखाना बदलाव कर अच्छे समाज का निर्माण करना नहीं बल्कि खुद अपने आप पर आत्ममुग्ध होना है। आगे बढ़ना ऊंचाई पर पहुंचने को हर तरह से चतुराई और समझौता कर इक मुकाम पाना रहा साहित्य जगत में जगह बनाना। जिस समाज की दुःख दर्द की असमानता अन्याय अत्याचार की बात लिखते हैं कविता कहानी ग़ज़ल उपन्यास में वास्तव में उन से सरोकार कहने को ही है वास्तविक संवेदना कहीं खो जाती है। जैसे किसी दर्द भरी दास्तां लिखने वाला कथाकार खाली पेट दर्द सहकर लिखता है लेकिन फ़िल्म में तालियां और दौलत अभिनेता के हिस्से में आती हैं जो गरीबी भूख बेबसी से अनजान होता है। 
 
अखबार पत्रिकाओं में रचनाएं छपना अच्छा लगता है लेकिन आपको छापने वालों का आभार व्यक्त करने के साथ उनकी उचित अनुचित बातों को लेकर खामोश रहना पड़ता है। जैसे आपने लेखक के अधिकार उस के जीवन यापन जैसी बात पर ध्यान दिलाया गलती से मेहनताना नहीं मिलने की बात अथवा उनके दोहरे मापदंड अपनाने को लेकर शब्द लिख दिया आपको सज़ा मिलना तय हो जाता है। चाटुकारिता उनको भी खूब भाती है खुद विज्ञापन देने वालों को भगवान की तरह मानते हैं और जो इनकी बढ़ाई का गुणगान करता है उन की रचनाओं को जगह देने को तैयार रहते हैं। आजकल सोशल मीडिया पर छापने वाले संपादक का आभार जताना रिवायत बन गया है। कोई ज़माना था संपादक फोन कर चिट्ठी भेज कर अनुरोध किया करते थे रचना भेजने को। अखबार पत्रिका टीवी सीरियल फिल्म अर्थात जहां कहीं भी विचार विमर्श समाज की जनहित जनकल्याण की बात होना ज़रूरी है लेखक जो आधार होता है बुनियाद की तरह पहली ज़रूरत उसका स्थान हाशिए पर होता है। जिनकी खुद की किताबों की रायल्टी मिलती है वो भी अपने संस्थान में रचनाकार को मानदेय तक नहीं भेजते कभी कभी तो लेखक का शोषण किया जाता है सदस्य्ता शुल्क नहीं भेजते तो रचनाएं नहीं छपती उनका चलन है। ऐसा लगता है साहित्य का उपयोग सभी करते हैं उसकी कीमत नहीं समझते बस साहित्य का कारोबार खूब बढ़ रहा है मकसद की धारणा छूट गई है। 
 
समाचार पढ़ते हैं अमुक साहित्यकार ने पुस्तक भेंट की सरकारी बड़े अधिकारी राजनेता किसी बड़े नाम वाले समाजसेवी अभिनेता आदि को। इतने व्यस्त रहते हैं और उनको साहित्य से सरोकार नहीं होता बल्कि बहुत लोग विपरीत आचरण करने वाले भी हो सकते हैं लिखने वाले को अवसर मिलना चाहिए फिर रामायण गीता की तरह आदर्शवादी कृति को रिश्वतखोर भ्र्ष्टाचारी को भी सच्चाई ईमानदारी पर लिखी पुस्तक भेंट करते उनसे प्रेरणा पाने की बात कहने में संकोच नहीं होता है। हज़ारों रूपये मूल्य की महान लोगों की जीवनी लिखने वाले की पुस्तक सरकारी अनुदान देने वाली संस्था विश्वविद्यालयों को खरीदने को लिखती देखी। काश यू जी सी से हम भी ऐसा सहयोग पा सकते , ये व्यंग्य रचना " मेरी भी किताब बिकवा दो "
छप चुकी है इरादा नहीं उस राह चलने का। 
 
पहली किताब जल्द ही छपने वाली है ग़ज़ल और नज़्म की। और उस के बाद कविताओं की , फिर व्यंग्य रचनाओं की उसके बाद कहनियों की पुस्तक तैयारी की हुई है। सच कहना चाहता हूं मुझे नहीं मालूम कौन मेरी रचनाओं को पढ़ना चाहता है। इस पोस्ट के माध्यम से पाठक की तलाश है जिनको हिंदी साहित्य की ललक हो चाह हो। कीमत की चिंता मत करना लागत मूल्य पर भेजने का संकल्प है और भरोसा है कि आपको खेद नहीं होगा पढ़कर कुछ सार्थक मिलेगा उम्मीद है। 
 
संपर्क - 9992040688 पर बात कर सकते हैं पुस्तक मंगवाने के लिए। छपते ही सूचना आपको एवं सोशल मीडिया पर दी जाएगी।
 


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