अक्तूबर 22, 2021

अंधेरे दिन रौशन रात ( अनसुलझे सवालात ) डॉ लोक सेतिया

    अंधेरे दिन रौशन रात ( अनसुलझे सवालात ) डॉ लोक सेतिया

सोशल मीडिया , लोग अपने बेगाने , टीवी शो फिल्म सीरियल की कहानी जाने कैसे कैसे इश्तिहार कितने जाने अनजाने ,  चाहे अनचाहे हम को नासमझ समझते हैं और समझाने की नाकाम कोशिश करते हैं। भगवान क्या है कैसे है , सरकार क्या है , कैसी क्योंकर है , सच्चाई भलाई से लेकर ज्ञान की , मूर्खता की उनकी खुद की घड़ी हुई परिभाषा , जिन पर तर्क वितर्क विचार विमर्श करना अनुचित बताते हैं भरोसा करने अंधविश्वास करने को सभी समझाते हैं। तमाम ऐसे विचार हैं जो सबको मानने ज़रूरी हैं , बेशक वास्तविकता में उनका विपरीत सामने दिखाई देता हो। जहां सरकार होने की बात होती है वहां लगता है सरकार नाम की चीज़ नहीं यहां कोई और जो विश्वास करते हैं ईश्वर है , सब अच्छा करता है फरियाद सुनता है सबको इक समान मानकर अपनाता है , उसका होना सच लगता नहीं है। रिश्ते नाते दोस्त समाज जैसे होने की बात होती है उस तरह के नहीं होते बल्कि मिलते हैं जैसे हम उम्मीद नहीं करते हैं। सोशल मीडिया ने हमको करीब लाने का झांसा देकर असल में दूर अकेला कर दिया है , हर शख़्स खुद कुछ नहीं समझना पढ़ना सुनना देखना चाहता औरों को बहुत कुछ समझाना दिखलाना पढ़वाना सुनवाना चाहता है। किसी भीड़ भाड़ वाले बाज़ार मेले या ऐसी सड़क जिस पर वाहनों की भरमार है सभी को जल्दी है अपनी अपनी मंज़िल पर पहुंचने की और हम किसी खोये राह पर रुके हुए हैं भटके मुसाफिर की तरह देखते हैं इधर उधर । ज़िंदगी जीने का वास्तविक मकसद भूले आसान रास्ता या कोई ढंग सब पल भर में पा लेने का तलाश करते दरिया किनारे खड़े रहते हैं ये सोचकर कि हीरे मोती अनमोल जवाहरात अपने आप हमारे कदमों में चले आएंगे किस्मत से। शानदार भविष्य के झूठे सपने दिखलाने वाले पूरी ज़िंदगी हमको तसल्ली देते रहते हैं सब उजाला होने वाला है कहकर मगर कोई चिराग जलाने की बात नहीं करता है। हमारा बढ़ता अंधकार उनके लिए बड़े काम आता है जो रौशनी का नाम देकर अंधकार का व्यौपार करते हैं। आधुनिक विज्ञान शिक्षा समय के साथ बदल चुके सामाजिक ढंग तौर तरीकों ने हमको अंधे कुंवे से निकलने की चाहत नहीं जगाई है इसलिए बाहर रौशनी है और हम खुद अंधेरे में रहकर सिर्फ रौशनी पर चर्चा करते हैं। अंधेरे में जीने की आदत हो गई है रौशनी से आंखे चुंधिया जाती हैं। कहने को आधुनिकता का लबादा पहने हुए हम अंधेरे के उपासक हैं यही हमारी विडंबना है। 
 

 

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