ज़िंदगी मिली अजनबी सी ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
मिली ज़िंदगी फिर भी मिलती नहीं
दूर रहती कभी पास आती ही नहीं
कुछ ख़राबी नहीं अच्छी लगती नहीं
जैसी हम सोचते हैं वैसी होती नहीं ।
जिन्हें महफ़िल की चाहत अकेले हैं
एक हम हैं जो तन्हाई अपनी नहीं
कोई अपना सा कहीं मिलता कभी
वरना तन्हाइयां हमको खलती नहीं ।
फ़ासले भी नहीं करीबी अजीब है ये
कुछ कहते नहीं कुछ भी सुनते नहीं
दो किनारे हैं बहती इक नदी बीच में
चलती रहती कहीं भी ठहरती नहीं ।
जानते नहीं कोई भी अजनबी नहीं
मिला हमको वो कम भी तो है नहीं
जीने को जीते हैं जीते मगर हम नहीं
ख़ुशी ज़िंदगी नहीं कोई ग़म भी नहीं ।
ग़ज़ल कविता नहीं और कहानी नहीं
प्यास बाक़ी नहीं मिलता पानी नहीं
कौन समझे ख़ामोशी की दास्तां को
जो नहीं समझे उसको सुनानी नहीं ।
2 टिप्पणियां:
वाह
बहुत खूब
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