तुझे हंसना मना है जुर्म रोना है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
तुझे हंसना मना है , जुर्म रोना है
यहां औरत है क्या बस इक खिलौना है।
नई कोई कहानी लिख नहीं सकते
तुझे फिर से ज़लीलो-खार होना है।
समझते लोग खुद को सब फ़रिश्ते हैं
शराफ़त बोझ तेरा तुझको ढोना है।
मुहब्बत ढूंढना मत जाके महलों में
नहीं उसके लिए कोई भी कोना है।
सरे-बाज़ार बिकना तुझको आखिर है
तुम्हारी लाश पर चांदी है सोना है।
बताओ कोख़ हर इक पूछती सब से
उगाये फूल कांटों का बिछौना है।
न पूछो हाल "तनहा" क्या हमारा है
ये आंचल आंसुओं से रोज़ धोना है।
1 टिप्पणी:
सुन्दर
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