कैद रहकर जश्न-ए-आज़ादी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
खुदा हमको ऐसी खुदाई न दे , कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे। ग़ुलामी को बरकत समझने लगें , असीरों को ऐसी रिहाई न दे। शायर बशीर बद्र जी की ग़ज़ल याद आई। बंदी रहने को ख़ुशी समझने लग जाएं कैदियों को ऐसी रिहाई मत देना। मौजूदा सूरत ए हाल कुछ इसी तरह की बन गई है आज़ादी भी बंद कमरे के घर में मनाना चाहते हैं लोग। जाने ये जश्न है या कुछ और है इक अनहोनी का भय कोरोना का। कोई भी समारोह ख़ुशी का दिल में अनजाना डर लेकर आयोजित करना विवशता हो सकता है। अभी राहत इंदौरी जी का निधन हुआ तो सोशल मीडिया से लेकर हर जगह उनकी चर्चा हुई और लगा कि अदब वालों की अहमियत आज भी बरकरार है। लेकिन चार साल पहले शायर निदा फ़ाज़ली जी का निधन जैसे बड़ी ख़ामोशी से हुआ कोई चर्चा नहीं हुई टीवी अख़बार सोशल मीडिया सब चुप थे। मुझे दोनों ही शायर बेहद पसंद हैं मगर जो सच है वो भी अपनी जगह है कि निदा फ़ाज़ली की शायरी की गहराई और ऊंचाई बेमिसाल है। जिनको ग़ज़ल और ग़ज़लियत की समझ है उनको पता है ग़ज़ल की रिवायत सीधे सपाट बात कहना नहीं बल्कि मुहावरेदार भाषा में समझाना होता है। शायद निदा फ़ाज़ली जी का सबसे लाजवाब शेर ही उनको शोहरत की बुलंदी पर होने के बावजूद भी गुमनाम मौत देने की वजह बन गया। शेर पढ़ते हैं।
बशीर बद्र जी की ग़ज़ल का शेर है। गुनहगार समझेगी दुनिया तुझे , अब इतनी ज़्यादा सफाई न दे। जिनको देशभक्ति और व्यक्तिपूजा का अंतर नहीं पता उनकी बात पर सफाई देना ज़रूरी नहीं है। कुछ ऐसा सोचकर उनकी बात दोहराने की कोशिश कर रहा हूं। क्यों न इस बार जश्न ए आज़ादी ऐसे मनाया जाये , देश की लुटती विरासत को लुटेरों से बचाया जाये। क्या है आज़ादी क्या होती है ग़ुलामी जानते नहीं जो लोग , उनको समझाने को अर्थ इतिहास दोहराया जाये। किसी रहजन को रहबर मत समझ लेना कभी भूले से , शहीदे आज़म भगत सिंह की डायरी को पढ़ के सुनाया जाये। सियासतदान बदलने से नहीं बदलेगी सियासत देश की , काठ की हांड़ी को नहीं बारम्बार चढ़ाया जाये।
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें ,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये।
राजनीति ने तो कब से शर्म लिहाज़ का घूंघट उतार दिया है। अब तो नासमझ लोग सच को समझे बिना सत्ता के विरोधी को अपशब्द कहने से लेकर पाकिस्तान भेजने की बात कहते हैं। ये उनकी किसी राजनीतिक दल या नेता की चाटुकारिता देश भक्ति नहीं हो सकती है। मगर उनको कुछ लोगों ने धर्म और देशभक्ति की उल्टी परिभाषा पढ़वा दी है जो अपने देश के लोगों से नफरत की भाषा में व्यवहार करते हैं। शायद उनको लोकतंत्र में असहमति होने का अर्थ नहीं पता अन्यथा जिनकी आज महिमा का बखान करते हैं क्या वो पहले पिछली सरकार नेताओं की आलोचना नहीं करते थे। अगर आपकी हमारी विचार अभिव्यक्त करने की आज़ादी ही खतरे में है तो जश्न किस बात का है। कोई उनसे पूछे क्या देशभक्ति की परिभाषा में जो विदेशी शासकों की मुखबरी करते थे और आज़ादी के दीवानों को पकड़वाते थे या अंग्रेज़ों को माफीनामे लिख देते थे और आज़ादी के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करते हुए कहते थे जितनी आज़ादी मिली हुई है अंग्रेजी हुकूमत से बहुत है उनके आचरण को देशभकि कहते हैं।बशीर बद्र जी की ग़ज़ल का शेर है। गुनहगार समझेगी दुनिया तुझे , अब इतनी ज़्यादा सफाई न दे। जिनको देशभक्ति और व्यक्तिपूजा का अंतर नहीं पता उनकी बात पर सफाई देना ज़रूरी नहीं है। कुछ ऐसा सोचकर उनकी बात दोहराने की कोशिश कर रहा हूं। क्यों न इस बार जश्न ए आज़ादी ऐसे मनाया जाये , देश की लुटती विरासत को लुटेरों से बचाया जाये। क्या है आज़ादी क्या होती है ग़ुलामी जानते नहीं जो लोग , उनको समझाने को अर्थ इतिहास दोहराया जाये। किसी रहजन को रहबर मत समझ लेना कभी भूले से , शहीदे आज़म भगत सिंह की डायरी को पढ़ के सुनाया जाये। सियासतदान बदलने से नहीं बदलेगी सियासत देश की , काठ की हांड़ी को नहीं बारम्बार चढ़ाया जाये।
आज़ादी चाहिए थी भूख से गरीबी से भेदभाव बढ़ाने वाली गंदी राजनीति से असमानता की बढ़ती हुई खाई को मिटाना था। हमने स्वराज को लाना था विदेशी को बाहर भगाना था मगर हमने राह वो चुनी जिस राह नहीं जाना था लूटने वालों को खुद घर नहीं बुलाना था। झूठ का गुणगान नहीं करना था सच को बचाना था , अपने हौंसलों से नया भारत खुद बसाना था। हमको सभी राजनेताओं ने भटकाया है सबको अपना अपना मतलब नज़र आया है। कब यहां आम लोग जश्न मनाते हैं ख़ास लोग कहने को झूठी देशभक्ति की कसम खाते हैं। देश सेवा के नाम पर उनकी मौज मस्ती है उनकी जान महंगी है जनता की जान सस्ती है। जिनके चेहरे पर आज़ादी की मस्ती छाई है , उसी ने ही जंज़ीरें जनता को पहनाई हैं।
ये न पूरी है न ही अधूरी है आधी है , कैद में कैसी ये जश्न -ए -आज़ादी है।
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