मार्च 15, 2019

मुझे कैसे सांसद विधायक चाहिएं ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

 मुझे कैसे सांसद विधायक चाहिएं ( आलेख )  डॉ लोक सेतिया 

    आज सुबह इक दोस्त का फोन आया मिलकर लोगों को समझाया जाये कैसे व्यक्ति को चुनना चाहिए। अभी शाम को इक और दोस्त ने व्हाट्सएप्प पर पूछा फिर किसको वोट देना चाहिए। जाने क्यों टीवी चैनल अख़बार फेसबुक सोशल मीडिया पर हर कोई सबको समझाना चाहता है किसी पक्ष को समर्थन देने को। पहली बात यही गलत है कि कोई किसी के कहने पर किसी को वोट डाले , सब को खुद विचार करना चाहिए देश और समाज की भलाई किस को वोट देने से मुमकिन है। इसलिए आपको जिसको वोट देना है अपनी मर्ज़ी से देना मेरे या किसी और के कहने से नहीं। आपका चुनाव सही गलत हो सकता है मगर आपकी अपनी सोच से तो हो किसी के कहने से कदापि नहीं। मुझे कैसी सरकार कैसे संसद विधायक पसंद हैं आज इसकी बात करना चाहता हूं। 
 
           जो संसद या विधायक सरकारी बंगला नहीं कार नहीं कोई विशेषाधिकार और मुफ्त की सुविधा नहीं चाहते हों और देश जनता की सेवा की आड़ में सुख सुविधा शान वीवीआईपी रुतबा नहीं मांगता और हम जैसे आम नागरिक की तरह अपनी खुद की आमदनी से अपने घर में रहकर काम करना चाहता हो। जिनको राजनीति अपना कारोबार या खानदानी धंधा लगता हो उनको वोट देना मुझे पसंद नहीं है किसी की मौत के बाद उसकी बेटी बहु दामाद बेटा पत्नी को उसकी जगह विधायक संसद बनाना सबसे गलत बात है। जब हम खुद उनको विरासत की तरह ये सब देते हैं तो देश के संविधान और लोकतंत्र की अवहेलना करते हैं। जिनका आपराधिक इतिहास है जो गुंडागर्दी और तमाम असामाजिक कार्य करते हैं सरकारी ज़मीन पर कब्ज़े करते हैं और असामजिक तत्वों को सहायता देते हैं उनको वोट देना अर्थात बदमाशी को बुलावा देना होगा। 
 
       आपको अच्छे सच्चे ईमानदार लोग खुद चुनकर खड़े करने चाहिएं न कि किसी दल के खड़े गलत उम्मीदवार को विवश होकर चुनना चाहिए। आपको वोट मांगने आये व्यक्ति से सवाल करना चाहिए किस तरह की सरकार बनवाने को वचन देते हैं। मुझे ऐसी सरकार पसंद है जिस के लिए देश की जनता को एक समान शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करवाना सबसे महत्वपूर्ण कार्य और अपना कर्तव्य लगता हो। जीने की बुनियादी सुविधाएं हर नागरिक को एक समान मिलनी चाहिएं। बड़े छोटे अमीर गरीब का जीना मरना बराबर होना चाहिए। करोड़ों लोग बेघर हैं और किसी की समाधि बनाने को कई एकड़ भुमि देना इक अपराध जैसा है। कहने को हम देश की जनता की सेवा करते हैं मगर वास्तव में उनके एक एक मिंट की महंगी कीमत देशवासी चुकाते हैं और बदले में पाते क्या हैं झूठे वादे और घोषणाएं। नफरत की बांटने की जाति धर्म की राजनीति संविधान की भावना के विपरीत है ऐसी राजनीति ने ही देश को बदहाली से निकलने नहीं दिया है। आपको सामने दिखाई देता है हर उम्मीदवार कितना पैसा चुनाव आयोग के नियम को दरकिनार कर खर्च करता है फिर जिस को कानून नियम तोड़ने में संकोच नहीं उसी को वोट देकर कैसे आशा की जा सकती है देश के संविधान की पालना करने की। उनकी कथनी नहीं उनके वास्तविक आचरण को देखकर अपना वोट देना चाहिए। सबसे पहली बात जिसको चुनना है क्या वो खुद अपने विचार निडरता से रखने को शपथ देता है और किसी भी अन्य नेता या दल की उचित अनुचित हर बात को ख़ामोशी से मानने वाला इक कठपुतली बनकर अपने स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है। अपनी विचारों की अभ्व्यक्ति की आज़ादी की चिंता नहीं करता हो जो भी उसको आपकी आज़ादी और अधिकार की चिंता कैसे होना मुमकिन है।

       किया क्या करना क्या चाहिए और देश की तस्वीर बदल सकती कैसे है 

       कहने को तमाम बातें हैं मगर अभी तक जो होता आया है पहले जो भी थे उनकी आलोचना करना और उसके बाद खुद वही सब करना भी ऐसा करने से हासिल क्या हुआ। देशभक्त होने का तमगा लगाना आसान है देशभक्त होना चाहता कोई नहीं है। सत्ता पाना ही अगर ध्येय बन गया है तो ऐसी राजनीति को किसी कूड़ेदान में फैंकना बेहतर है वास्तविक मकसद सत्ता मिलने पर देश की हालत सुधारना है। आपको तो देश भी सड़क भवन पुल जैसी बेजान चीज़ें लगती हैं जबकि देश वास्तव में सवा सौ करोड़ लोग हैं जिनकी आप उपेक्षा करते हैं। ये अहंकार से कहना मैंने मेरी सरकार ने अमुक अमुक कार्य किये हैं कितना उचित है , अपने आकर अपनी कमाई अपनी मेहनत से कोई तिनका भी नहीं तोड़ा है अपने जनता के धन को जनता की मेहनत से उसी के पसीने से सड़क भवन बनवा अपना नाम लिखवा कितना गलत किया है। कोई राजा महाराजा नहीं जिसने अपने खज़ाने से कोई विकास किया है। सत्ता का मतलब अधिकार मानने की बजाय अगर कर्तव्य समझते तो बात और होती वास्तव में। हर जनसेवक अधिकारी को अपने दफ्तर में बैठ जनता की समस्याओं को समझना और हल करना चाहिए मगर जिस देश के प्रधानमंत्री अपने फ़र्ज़ को समझ दफ्तर जाने की ज़हमत नहीं उठाते और पांच साल इधर उधर सत्ता का विस्तार और भाषण देना सैर सपाटे मनोरंजन करना अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने में व्यस्त रहते हैं देश संविधान की उपेक्षा करने का काम करते हैं। ये कैसा आज़ाद देश है जिस में कोई मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री या कोई बड़ा राजनेता अधिकारी पुलिस न्यायालय का न्यायधीश आता जाता है तो इक काफिला साथ चलता है सड़क रोकते हुए आम नागरिक को बाधा देते हुए। अपने कारण बाकी लोगों को असुविधा होना कोई नियम कानून नहीं हो सकता और जो अधिकार आपको बाकी जनता के अधिकारों का हनन करने के बाद मिलता है वो खुद अन्याय है जबकि अपने कसम खाई थी संविधान की न्याय करने की। 
 
        देश की जनता का धन खून पसीने की गाढ़ी कमाई को अपने ऐशो आराम पर बर्बाद करना देशभक्ति नहीं गुनाह कहला सकता है। कितनी अजीब बात है हर दिन आपकी मीटिंगस सजे धजे हाल में मेज़ पर तमाम खाने पीने का सामान और दिखावे की औपचारिकता पर पैसा समय संसाधन बर्बाद किये जाते हैं मगर असल में ऐसी बैठकों का कोई औचित्य ही नहीं होता है। हर शहर के अधिकारी हर दिन बैठकों में करते क्या हैं कोई जाकर देखेगा तो सर पीट लेगा ये समझ कि कोई मतलब की बात नहीं थी। जितना समय चाय पकोड़े और बेमतलब की गप शप में लगाते हैं उस का उपयोग जनता की बात समझने में लगाते तो काम भी होता। काम करना नहीं मगर काम करते हैं इसका दावा और दिखावा करना कर्तव्य के साथ छल ही तो है। कोई भी अधिकारी अपने फ़र्ज़ को दरकिनार कर रोज़ किसी संस्था की सभा में अपनी शोभा बढ़ाने को और कुछ ख़ास लोगों की तरफदारी करने को जाता है तो अनुचित है। ये आपका कार्य नहीं है किसी जाति वर्ग धर्म का पक्ष नहीं सबको बराबर मानना आपका कर्तव्य होना चाहिए। अपने जो किया उसकी इश्तिहार की ज़रूरत नहीं है सबको सामने दिखाई देना चाहिए क्या हुआ है। साल होने के सरकारी इश्तिहार क्या मतलब रखते हैं राजनेताओं को अपने गुणगान की लत लग गई है जो कोई भली बात नहीं है। कोई भी राजनेता मसीहा कदापि नहीं होता है। अपने स्वार्थ को सत्ता का दुरुपयोग करना जैसे आदत बन गई है और ऐसा करते कोई शर्म या अपराधबोध नहीं होता है। इस से बढ़कर बेशर्मी क्या होगी जब कोई नेता अधिकारियों की सभा में अपने दल के लोगों की बात मानने को निर्देश देता है। देश की सेवा करते हैं सरकारी अफ़्सर कर्मचारी न कि किसी राजनेता की जीहज़ूरी और चाटुकारिता करने को उनको नियुक्त किया गया है। जनता पर कानून की तलवार मगर ख़ास लोगों को मनमानी की छूट देना खुद पुलिस और विभागीय अधिकारी का अपराधी बनना है। जो गलत चलता रहा है चलते रहना ठीक नहीं है उसको बदलना होगा। सरकार बदलने से कुछ नहीं होगा अब सरकारी तौर तरीके बदलने होंगे और ऐसा नेता अधिकारी खुद करेंगे नहीं लगता है। जनता को जागरुक होकर अपने अधिकार मांगने और छीनने होंगे उनकी खैरात नहीं मांगनी है। 
 
        संविधान किसी दलीय व्यवस्था की बात नहीं करता है और ऐसा नियम बनाना कि राजनैतिक दलों को मिलने वाले चंदे देश से या विदेश से का कोई हिसाब नहीं पूछ सकता बताता है वास्तविक समस्या चोर की दाढ़ी में तिनका नहीं शहतीर छुपा है। हर नेता चंदा लेकर देने वाले को कई गुणा फायदा देने का काम करता है वो भी अपनी जेब से नहीं देश की जनता की कमाई किसी कारोबारी को देकर। ये लूट की खुली कहानी है जिसका अंत होना ज़रूरी है। बातें बहुत हैं मगर आखिर में बात घोटालों की , देश का अभी तक का सबसे बड़ा घोटाला सरकारी इश्तिहार के विज्ञापन हैं जिनसे अख़बार टीवी चैनल मालामाल हैं तभी खामोश हैं। ऐसे विज्ञापन कोई देश की जनता की भलाई नहीं करते केवल लूट का हिस्सा पाकर झूठ को सच बनाते हैं। केवल जनता को उनके अधिकारों की जानकारी या किस तरह अपने साथ अनुचित होने को रोकना है जैसे विषय के इश्तिहार छपने चाहिएं और ऐसा कानून बनाया जा सकता है कि जनहित की ऐसी बात छापना और दिखाना अख़बार टीवी वालों को ज़रूरी हो बिना कोई शुल्क लिए  क्योंकि उनको जितने अधिकार मिलते हैं ये उसी का अंग है। सबसे अच्छी बात इस से मीडिया की निष्पक्षता फिर से बहाल हो सकती है जो आज कहीं बची नहीं है। 

 

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