नहीं का नहीं ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
चुप रहने की आज़ादी है
लब खोलने की भी मिली है
हर बात पर हर बार मगर
हां कहने की है नहीं की नहीं ।
रिश्तों के बंधन जाने कैसे हैं
दुःख दर्द सहने की आज़ादी है
चुपके चुपके छुपके रोने की भी
खुश रहने की कभी मिली नहीं ।
घुट घुट कर जीने की आज़ादी
मर मर ज़िंदा रहने की भी है
हर सांस पर पहरा लगा हुआ
मौत की मरने की मर्ज़ी पर नहीं ।
जिस राह पर जाना ज़रूरी है
उसी डगर चलने की मनाही है
काटों की राह चलना पड़ता है
रुकने ठहरने की अनुमति नहीं ।
उलझन कोई भी नहीं सुलझती
सुलझाने से बढ़ती जाती है और
समझाते हैं सभी हर किसी को
समझता उलझन नहीं कोई नहीं ।
हां वही है जो नहीं है नहीं है
वही नहीं जो होकर भी है नहीं
इकरार इनकार दोनों इक जैसे
हां कहा नहीं , नहीं सुना नहीं ।
2 टिप्पणियां:
वाह
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 24/03/2019 की बुलेटिन, " नेगेटिव और पॉज़िटिव राजनीति - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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