नवंबर 02, 2019

इक नज़र बीते ज़माने पर और इक नज़र कल के भविष्य पर ( बदलते हुए एहसास ) डॉ लोक सेतिया

   इक नज़र बीते ज़माने पर और इक नज़र कल के भविष्य पर 

                         ( बदलते हुए एहसास ) डॉ लोक सेतिया

 रिहाई की बात नहीं है रिहा होने की आरज़ू भी कभी की भूल गई। थोड़ा बदलते समय के दौर पर सोचा तो फुर्सत में किसी फिल्म की तरह फ्लैशबैक की तरह यादें चली आईं। ज़िंदगी अपनी हरदम किसी कैद में रहते गुज़री है कैदी यही रहा सय्याद बदलते रहे। आदमी को इतना भावुक और संवेदनशील भी नहीं होना चाहिए कि जीना दूभर होता जाये। हंसना चाहो तब भी आंखें नम हो जाएं और हर किसी से अश्क़ छिपाने की ज़रूरत हो या फिर ख़ुशी के आंसू हैं बताना पड़ जाये। मगर कुदरत भी कभी ठोस पत्थरीली ज़मीन पर कोई नाज़ुक सा फूल उगा देती है शायद मुझे यही मिला नसीब से। पत्थरों में रहकर भी फूल कोमलता बरकरार रखता है नहीं बन सकता पत्थर दुनिया की तरह। 

     कैद खुद अपनी भी बनाई हुई है और रिहा होने को कोशिश भी खुद ही करनी होगी इस बात को जानता हूं मगर होता है कभी जीवन भर पिंजरे में रहते रहते पिंजरा भाने लगता है। कोई पिजंरे का दरवाज़ा खोल देता है फिर भी मन बाहर नहीं निकलता और मुमकिन है कोई पकड़ कर खुली हवा में उड़ा दे तब भी पंछी खुद अपने पिंजरे में वापस लौट आये। बोध कथा की तरह। पर ये भी सच है पिंजरा चाहे सोने का हो या चांदी का बना पिंजरा पिंजरा ही होता है पंछी उड़ने को बेताब रहता है। मगर सय्याद ने जब पंख ही तोड़ डाले हों तब पंछी छटपटा भी नहीं सकता उड़ना तो दूर की बात है। 

   मुझे कैद रखने वाले समझते रहे मुझसे मुहब्बत करते हैं मेरा ख्याल रखते हैं मुझे सब दुनिया से बचाकर रखना ज़रूरी है। पिंजरे में बंद पंछी का चहकना अपने अंदर कितना दर्द छुपाये रहता है कोई नहीं समझता है। आज़ाद होने की ख्वाहिश रहती थी कभी अब नहीं बची शायद नियति को मंज़ूर कर लिया है। कितने साल जिस घर में रहा अपना था मगर लगता नहीं था अपना उस से बिछुड़ते समय पता नहीं उदासी का अर्थ क्या था मगर मन उदास उदास था अवश्य। 

    दुनिया की तेज़ रफ़्तार ने सुबह से शाम तक कितना लंबा सफर तय कर लिया और मैं खुद अपने पिंजरे को साथ लिए नई अजनबी दुनिया में चला आया नहीं सोचा समझा कुछ भी। अब उलझन पड़ी है सब बदला बदला है और मुझे समझाया जा रहा है नए माहौल में बदले तौर तरीके यहां की भाषा तहज़ीब सीखनी होगी। उनकी बात सुन सकता हूं अपनी कहनी नहीं आती है ऐसे में किस तरह बताऊं सीखने को जितना है जीने को उतना वक़्त भी शायद बचा नहीं है। आपके इशारे समझते समझते जाने कब कोई इशारा मिल जाये और भीतर का पंछी उड़ जाए अपनी आखिरी मंज़िल की तरह सुहाने सफर पर। 
 

 

 


कोई टिप्पणी नहीं: