मुजरिम ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया
मैं इक ऐसा गुनहगार हूं ,
खुद अपने से शर्मसार हूं।
अपने ही घर में चोर हूं ,
मैं हूं मैं कि कोई और हूं।
कैसा अजब किरदार हूं ,
हर सज़ा का हकदार हूं।
झूठ है मैं भी अमीर हूं ,
सच तो है इक फकीर हूं।
जाने कौन क्या पहचान हूं ,
अपने से भी अनजान हूं।
किसलिए अभी ज़िंदा हूं ,
इस बात पे शर्मिन्दा हूं।
अब हो चुका चूर-चूर हूं ,
हां हां मैं वही मगरूर हूं।
आशिक़ हूं पर अजीब हूं ,
आप अपना ही रकीब हूं।
शहर नहीं न कोई गांव है ,
नहीं धूप भी न ही छांव है।
हर कारवां से बिछुड़ गया ,
हर आशियां बिखर गया।
हंसता नहीं रोता भी नहीं ,
बेजान कुछ होता ही नहीं।
ख़ामोशी की आवाज़ हूं ,
बिना पर की परवाज़ हूं।
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