सितंबर 28, 2018

कितने चेहरे हमारे नकाब कितने हैं ( बात की बात ) डॉ लोक सेतिया

  कितने चेहरे हमारे नकाब कितने हैं ( बात की बात ) डॉ लोक सेतिया

   सत्यमेव जयते वाक्य है सत्य की जीत नहीं हार होती है तय है। हम कहते हैं धर्म अच्छाई सच्चाई की राह दिखाता है मगर धर्म को लेकर फसाद करते हैं। खुदा को भगवान को कोई तलाश नहीं करता सब बदनाम ही करते हैं धर्म को ईश्वर को। कल अदालत ने फैसला सुनाया कि औरत पति की सम्पति नहीं है और विवाह का अर्थ ये नहीं कि किसी और से संबंध नहीं रख सकती है। अपनी मर्ज़ी से जिससे चाहे शारीरिक संबंध रख सकती है इसको कोई अपराध नहीं माना जायेगा। हंगामा होने लगा जो होना ही था क्योंकि हम कुछ बातों की चर्चा होना स्वीकार नहीं करते भले वो बात होती हो देख कर अनदेखा करते हैं। हमारा असली चेहरा क्या है आज उसी की बात करते हैं। कल किसी की फेसबुक पर पोस्ट थी कि जिनको लगता है कविता लिखना या साहित्य लिखना आसान है ज़रा दो लाइनें लिख कर देखें। माना बहुत लोग फेसबुक पर कमैंट्स भी लिखते हैं तो उनकी समझ सामने आ जाती है , "अच्छी लैणे हैं " पढ़ते लगता है अज्ञानता का भंडार है। मगर वास्तव में लिखना कठिन नहीं इक स्वाभाविक कार्य है हवा चलना नदी के जल का बहना सांस लेना सब अपने आप होता है नहीं होना कठिन है। कठिनाई तब होती है जब आपके भीतर विचार , खलबली नहीं करते इक शून्य हैं मगर चाहते हैं लेखक कहलाना। अब आप शून्य को कितनी बार लिखते जाओ शून्य शून्य ही रहता है। ऐसे शून्य किसी एक या दो या तीन चार की तलाश करते हैं जो उनके आगे लग सके और उनकी कीमत सौ हज़ार दस हज़ार लाख करोड़ बन सके। ये उधार की हुई या चुराई हुई किसी और की बातों को रचनाओं को अदल बदल कर लिखने वाले बन जाते हैं , ऐसे लोगों को लिखना कभी नहीं आता क्योंकि उनका ध्यान रहता ही हेरा फेरी पर है। लिखने से इश्क़ हो तो हेराफेरी नहीं चलती है। बात अदालत के निर्णय पर चर्चा की। 
 
        अदालत ने सवाल समानता के अधिकार पर उठाया है , महिला पर अनुचित संबंधों का मुकदमा मगर अपराधी पुरुष। पुरुष पर दूसरी औरत से संबंध पर ख़ामोशी ही नहीं उसके चर्चे भी खुलेआम , ये बदनामी महिलाओं के माथे क्यों मढ़ते हैं भागीदार दोनों हैं एक हाथ से ताली नहीं बजती। खुद को सारे जहां से सच्चा कहने वाले टीवी समाचार चैनल की मनसिक दिवालियापन की कोई सीमा नहीं है , खबर को फ़िल्मी कहानियों से जोड़ कर निशाना किसी अभिनेता और अभिनेत्री पर लगाते हैं। अपने देखा है उनको शारीरिक संबंध बनाते और सबसे पहले खुद सती सावित्री हैं , राम हैं मर्यादा का पालन करते हैं। मगर ये मसाला तैयार रहता है जब भी अवसर मिलता सिलसिला फिल्म की बात करते हैं , साधना फिल्म की नहीं करते कभी। धूल का फूल की नहीं करते पति पत्नी और वो की नहीं करते है , आप की कसम की बात करते तो समझते कि अफवाह और झूठ कितने घर बर्बाद करते हैं। टीवी वालो खुद आग लगाते हो खुद तमाशाई भी बनते हो। ये गीत सुनो ही नहीं समझो इक इक शब्द के अर्थ को। 


   सिलसिला की कहानी हिट है , बरसात की कहानी पुरानी हो चुकी है। फ़िल्मी जगत में नायक नायिका के प्यार की अफवाह से फिल्म चलती रही है। अंदर की बात है। मगर मीना कुमारी से लेकर राजकपूर तक की कितनी कहानियां चर्चित हुई हैं। फिल्म बनी सिलसिला पर जब सिलसिला बाकी नहीं रहा। दुष्यंत फिर हर बात में याद आते हैं। सिलसिले खत्म हो गये यार अब भी रकीब हैं। चलो पुरानी फिल्मों में ही सही मुहब्बत की बात प्यार के किस्से इश्क़ के फ़साने तो थे , आजकल की फिल्मों में या टीवी सीरियल में सब कुछ है प्यार मुहब्बत को छोड़कर। हीर रांझा की कहानी पसंद है मगर लैला मजनू को बदनाम किया जाता है। सरकार मजनुओं को पकड़ जेल में डालती है पुलिस वाले पिटाई करते हैं और पंचायत कत्ल करने की सज़ा सुनाती है।  हम अजीब समाज में रहते हैं बड़े कहलाने वाले करें तो मुहब्बत की कहानी और गरीब करे तो जुर्म। दोहरे मापदंड हैं , जो अभिनेता धर्म बदलकर दूसरी शादी करता है उसको कोई कुछ नहीं कहता और कोई आम किसी महिला के साथ पार्क होटल में दिखाई देता है तो कहानियां बना लेते हैं। आपके पास हौसला है तो हंगामा करने वालों को उनके धर्म की कथाओं की बात याद दिलवा सकते हैं। याद नहीं आया किस किस रानी ने किस किस को बुलवा कर संतान पैदा की थी। किस की विवाह से पहले कौन सी संतान थी और क्या क्या। ये नियम किसने बनाये थे। मैंने इक कथा पढ़ी थी कि इक मुनिवर की पत्नी वन को किसी गैर मर्द के साथ जा रही थी कि उसके बेटे ने देखा और अपने पिता से शिकायत की थी। पिता ने समझाया कि कुछ नियम कुदरत के बने हुए हैं और इंसान पशु पक्षी सभी जिससे चाहे संबंध बना सकते है अपनी आवश्यकता की खातिर। बाद में बेटा जब पिता की गद्दी पर बैठा तब उसी ने ये नियम बनाये। सवाल उचित अनुचित का नहीं है सवाल समानता का है और जो महिला के लिए अपराध है पुरुष के लिए भी गुनाह होना चाहिए। और अपराधी महिला सज़ा पुरुष को मिले इसे भी सही नहीं ठहराया जा सकता है। विश्वमित्र और मेनका की कथा भी जानते हैं क्यों कोई अप्सरा किसी की तपस्या भंग करती है। इस बात को यहीं रहने दो अन्यथा बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। दुनिया बदलती गई है मगर हम अभी भी उसी मोड़ पर अटके हैं। ये मुहब्बत इश्क़ प्यार कब किसी अदालत की इजाज़त लेते हैं , आप बेकार उलझते हैं। लोग इतनी जल्दी राय बदलते हैं कि सोचने वाले हाथ मलते हैं। बिगबॉस के घर चलते हैं अनूप जलौटा और जसलीन से मिलते हैं , खुलमखुल्ला चुंबन करते हैं। जो पहले खराब बता रहे थे अब बदल गई राय उनकी अच्छे लगते हैं कहते हैं। हम भी इसी युग में रहते हैं। जो करते हैं कभी नहीं कहते हैं , खूबसूरत अदाओं पर सभी मरते है। इसी बहाने दो ग़ज़ल पढ़ाते हैं और चलते हैं।
             

सभी को हुस्न से होती मुहब्बत है - लोक सेतिया "तनहा"

सभी को , हुस्न से होती मुहब्बत है ,
हसीं कितनी हसीनों की शिकायत है।

भला दुनिया उन्हें कब याद रखती है ,
कहानी बन चुकी जिनकी हक़ीकत है।

है गुज़री इस तरह कुछ ज़िंदगी अपनी ,
हमें जीना भी लगता इक मुसीबत है।

उन्हें आया नहीं बस दोस्ती करना ,
किसी से भी नहीं बेशक अदावत है।

वो आकर खुद तुम्हारा हाल पूछें जब ,
सुनाना तुम तुम्हारी क्या हिकायत है।

हमें लगती है बेमतलब हमेशा से ,
नहीं सीखी कभी हमने सियासत है।

वहीं दावत ,जहां मातम यहां तनहा ,
हमारे शहर की अपनी रिवायत है।         

यहां तो आफ़ताब रहते हैं - लोक सेतिया "तनहा"

यहां तो आफताब रहते हैं ,
कहां, कहिये ,जनाब रहते हैं।

शहर का तो है बस नसीब यही ,
सभी खानाखराब रहते हैं।

क्या किसी से करे सवाल कोई ,
सब यहां लाजवाब रहते हैं।

सूरतें कोई कैसे पहचाने ,
चेहरे सारे खिज़ाब रहते हैं।

पत्थरों के मकान हैं लेकिन ,
गमलों ही में गुलाब रहते हैं।

रूह का तो कोई वजूद नहीं ,
जिस्म ही बेहिसाब रहते हैं। 

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