मई 29, 2018

इस दौर को परिभाषित करते मुहावरे और लोकगीत - डॉ लोक सेतिया

       इस दौर को परिभाषित करते मुहावरे और लोकगीत 

                        डॉ लोक सेतिया

शेर ग़ज़ल :-

अनमोल रखकर नाम खुद बिकने चले बाज़ार में ,
देखो हमारे दौर की कैसी कहावत बन गई। 
 
मतलूब सब हाकिम बने तालिब नहीं कोई यहां ,
ऐसी हमारे देश की कैसे सियासत बन गई। 

    ( सब मनोनीत लोग सत्ता पर बिठाये हुए हैं ,  कठपुतिओं की तरह से ,  

      ये लोकतंत्र में कैसे हुआ कि कोई भी जनता द्वारा निर्वाचित नहीं है ) 


दोहे :-

मचा हुआ है हर तरफ लोकतंत्र का शोर ,
कोतवाल करबद्ध है डांट रहा है चोर।

चमत्कार का आजकल अदभुत है आधार ,
देखी हांडी काठ की चढ़ती बारम्बार।

आगे कितना बढ़ गया अब देखो इंसान ,
दो पैसे में बेचता ये अपना ईमान।

झूठ यहां अनमोल है सच का ना व्यौपार ,
सोना बन बिकता यहां पीतल बीच बाजार। 

लकोक्तियां :-

राजनीति हो इश्क़ हो या दोस्ती , मुहब्बत प्यार कुछ नहीं ,
 
ज़रूरत है तो संबंध हैं , जो डराता है उसे खुदा बना लेते हैं। 

सखी वो ज़माना और था लोग पसंद करते थे उसे चुनते थे ,
 
अब आशिक डराता है मेरी नहीं बनोगी तो मर जाओगी।

शासक भय पैदा करता है और इक शोर खड़ा करता है ,
 
मुझे नहीं चुनोगे तो बहुत पछताओगे , समझ लो इसे।

आदर्श , मूल्य , नैतिकता , धर्म :-

सरकार झुकती है इक अपराधी के सामने , जो चुनौती देता है देश को , 
खुद को धर्मगुरु बताकर , सब धंधे करता है , गुनहगार खुद है दोष औरों के बताता है। 
बेशर्म नेता सत्ता की खातिर हर सीमा तक नीचे गिर सकते हैं। 

कोई और है जो खुद को देश समाज की सेवा करने वाला सच्चा बताता है ,
बाकी सबको लालची मिलावटी सामान बेचने वाला कहकर खुद बेचता ,
जो कभी नहीं बनाता है मुनाफा कमाकर करोड़ो अरबों कमाता है ,
किसी को नहीं पता उसका अतीत , कोई नहीं जनता कैसा बही-खाता है। 

ये समुंदर खारा है नहीं इसका पानी कभी प्यास बुझाता है ,
सब मीठी नदियों का जल मिलता है फिर भी खारा है प्यासा है। 

धनवान :-

इनकी हवस बढ़ती जाती है कभी खत्म नहीं होती है ,
सब से अधिक गरीबी इन्हीं की सच में होती है।
पैसा इनकी शान है पैसा ही इनका भगवान है ,
सभी कुछ है पास नहीं इनके पास केवल ईमान है।
सब अमीर जानते हैं कैसा ये इक हम्माम है ,
विश्वास किसी धनवान का नहीं हर इक बेईमान है। 
 

 

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