मई 16, 2018

ये सच्ची कहानी है बेरहम ज़ुल्मी सरकारी विभाग की - ( आपबीती ) डॉ लोक सेतिया

      ये सच्ची कहानी है बेरहम ज़ुल्मी सरकारी विभाग की 

                           आपबीती - डॉ लोक सेतिया 

       ये कानून नहीं है , कानून की आड़ में गलत लोगों के हथकंडे हैं सच को दबाने खामोश करने और खुद सरकार और उसके विभाग के आपराधिक कार्यों पर पर्दा डालने के। 67 साल के इक वरिष्ठ नागरिक पर उसके रहने के एक मात्र स्थान पर तलवार खड़ी करना बदले की भावना से मानसिक परेशानी देना इंसानियत नहीं है। जो सरकार और उसका विभाग और प्रशासन के लोग मेरी शिकायत पर ढाई साल तक कुछ नहीं करते और खुद अपने ही सरकारी विभाग के खाली बिन बिके प्लॉटों से अवैध कब्ज़े नहीं हटवाते हैं और बार बार केवल एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर पात्र लिखते रहते हैं कि अभी तक आपने करवाई नहीं की आपको अमुक अमुक संख्या पत्र नंबर का जवाब देना है वही अब मुझे शिकायत करने वाले को कटघरे में खड़ा करना चाहते हैं। जुर्म क्या है आपकी सरकार को उसी के प्लॉट्स पर गैरकानूनी कब्ज़े की बात बताना। तीस साल से अधिक समय बाद नोटिस भेजते हैं जिस में नाम गलत कब किसे किसने अलॉट किया किस तारीख को और क्या अनुचित कर रहे साफ कुछ भी नहीं। इक छपे छपाये फॉर्म में तमाम अनियमितता की बात लिखी हुई , आपकी साहूलियत है जो भी सही गलत साबित करें। किसी अदालत किसी न्यायधीश को नहीं समझ आएगा आपके नोटिस का मतलब क्या है। ये इक आपराधिक ढंग है सरकारी विभागों का , ऐसा मान लिया जाता है कुछ न कुछ तो गलत होगा , कहीं तो कोई नियम पालन नहीं हुआ होगा। ऐसा इसलिए कि सरकारी विभाग के नियम दोहरे मापदंड वाले बनाये हुए होते हैं। सरकार जब मर्ज़ी नियम बदल सकती है और आम नागरिक को कुछ भी बदलने की आज़ादी नहीं। जिस भवन की बात की जा रही है पहले उसकी बात समझना ज़रूरी है।

                         ये विभाग जो आज नियम कानून की आड़ में ये सब कर रहा है उसे 1978 के एक एक्ट में बनाया गया था लोगों को आवास उपलब्ध करवाने के मकसद से बेघर करने को नहीं। 1972 में इक सरकारी विभाग न्यू मंडी टाउनशिप ने खुली बोली पर राज्य भर में रिहायशी , दुकानों के , उद्योगों के और सभी तरह के प्लॉट्स विकसित कर बेचे थे। शायद इस विभाग को भी हैरानी होगी कि उस विभाग का एक नियम ये भी था कि बाद में कोई आर्थिक तंगी से किश्तें नहीं दे सकता हो तो उसके ऐसा लिख कर देने से जो किश्त जमा करवाई थी पूरी वापस मिल जाती थी। ये न्यायकारी नियम था , जो आजकल के विभाग को उचित नहीं लगेगा। इस विभाग में या तो दस फीसदी रकम ज़ब्त कर ली जाती है या सालों बाद कैंसल किये प्लॉट्स की कीमत बढ़ने पर मिलीभगत से फिर से अलॉट कर दिए जाते हैं। उनके अनुसार गलत सही कुछ नहीं होता सब मनमानी है। अपने खुद के द्वारा बेचे प्लॉट्स में जब रिहायशी में कारोबार करने लगे लोग तब विभाग कोई करवाई नहीं करता यहां तक कि उच्च न्यायालय के आदेश भी पालन नहीं करते और सब कागज़ी करवाई झूठी बताई जाती है।

                     जो प्लाट किसी ने 1972 में बोली पर खरीदा और ज़रूरत पड़ने पर मुझे आगे बेचा 1986 में , विभाग से लिखवा कर कि कोई राशि बकाया नहीं देनी है , विभाग के अधिकारी कब्ज़ा दे गए और 1987 में मैंने भवन का निर्माण कर लिया। सरकार या विभाग को इस से कोई सरोकार नहीं लेकिन फिर भी मैं बताना चाहता हूं कि ये प्लाट और उसका निर्माण मैंने कोई दो नंबर की काली कमाई से नहीं किया , बल्कि तब अपनी विरासत में मिली खेती की ज़मीन को बेच कर लिया और बनवाया था। जिसने बोली पर खरीदा और मुझे बेचा था उसे सरकारी विभाग के कारण से पंजीकरण में साल भर लगा था लेकिन उसके पंजीकरण के चार दिन बाद ही उसने मेरे नाम पंजीकरण करवा दिया था। लोग विश्वास के काबिल और ईमानदार हुआ करते थे तब भी और आज भी मिल जाते हैं कहीं कहीं। तभी न्यू मंडी टाउनशिप विभाग को हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण के साथ मिला दिया गया। ये विभाग बाद में बना और प्लाट पहले बिके थे। मालूम नहीं इस विभाग को जिसका नाम फिर से बदल दिया गया है , को पहले विभाग के वास्तविक मास्टर प्लान की जानकारी थी या नहीं मगर इस विभाग ने बहुत कुछ उस प्लान के अनुसार नहीं किया बदल लिया। ये इक अजीब तरीका है जनहित के कारण या कुछ भी ऐसा बताकर सरकार सब कुछ कर लेती है और उसे अवैध नहीं माना जाता। इसी विभाग ने मॉडल टाउन के आवासी लोगों के लिए रखे कामनुयटी सेंटर की जगह को किसी और को बेचा डाला , उस से पहले भी न्यू मंडी टाउनशिप विभाग ने दुकानों के प्लॉट्स को किसी संस्था को धर्मशाला के लिए आबंटित किया जो गैर कानूनी था , पार्क की जगह को कई संस्थाओं को आंबटित किया गया। सब मास्टर प्लान को ताक पर रखकर मनमानी से किया गया।

                मगर अब तीस साल बाद मुझे नोटिस भेजते हैं। फोन पर बात की इक अधिकारी से जिसने विभाग को झूठ बताया कि वो मुझे मिला और अतिक्रमण पर बात की , अतिक्रमण करने वालों अपने ही विभाग के प्लाटों पर कब्ज़ा करने वालों पर करवाई नहीं करना वाला उल्टा शिकायती को ही खामोश करवाना चाहता है। मगर यहां सवाल खड़े होते हैं क्या ये बदले की भावना से नहीं किया जा रहा है। उस समय के इस शहर में और कितने भवन बने हुए हैं लेकिन आप केवल मुझ जैसे लोगों को चुनते हैं सभी को क्यों नहीं भेजते नोटिस। सब से पहली बात तीस साल बाद आपको याद आया ये सब वो भी उस प्लाट के बारे जो इस एरिया के आपके विभाग के आधीन आने से पहले बना लिया गया था। अंधा होगा वो कानून जो आपके विभाग के 1978 में बने नियम को सालों पहले दूसरे विभाग द्वारा बेचे प्लाट पर लागू करे।

          आम नागरिक को सीता की अग्निपरीक्षा देनी होगी मगर आप खुद राम नहीं हैं कोई तो सवाल करेगा। राम और रावण में अंतर कौन करे। 

 

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