रंग बदलती दुनिया ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
चुनावी राजनीति की बात है मौसम रंगीन है , नज़र आये चाहे कुछ भी समझ नहीं आये नज़ारा हसीन है । संख्या अनगिनत है चुनाव में सभी मैदान में उतरने को तैयार हैं जिस भी दल से टिकट मिल जाए उसे लेकर विचार बदल जाते हैं । जीत हार बाद की बात है अवसर मिलने की बात है कितनी हसीं मुलाक़ात है चांद भी है और उनका साथ है वाह भाई वाह क्या बात है । फूल है हाथ में , हाथ छोड़ना नहीं , ऐसा जज़्बात है इक यही खेल है जिसमें होती करामात है बिन बादल बरसती नोटों की बरसात है । हमारा देश और समाज कभी चलता था सोच समझ कर कुछ सार्थक पहले से बेहतर बनाने की दिशा में कोशिश करते हुए । लेकिन अब लगता है जैसे हम ठहर गए हैं किसी तालाब के पानी की तरह बहना दरिया नदिया की तरह भूल गए हैं । जिसे भी देखते हैं खुद की खातिर कोई अवसर ढूंढता है अन्य सभी को पीछे छोड़ आगे बढ़ना चाहता है , इक कारवां था जिस में तमाम लोग शामिल थे उसे बिखरने दिया मतलब की खातिर । भीड़ है फिर भी हम सभी अकेले ही नहीं अजनबी लगते हैं खुद को भी पहचानना कठिन लगता है । चर्चा बहुत होती है सार्थक संवाद नहीं होता है क्योंकि विचार विमर्श करते हुए भी हमारा ध्यान निष्कर्ष को लेकर नहीं उसका हासिल क्या हो सकता है हमें ऊपर ले जाने के लिए इस की चिंता रहती है ।
सभी को इक छलांग लगाकर शिखर पर पहुंचना है सत्ता हथियानी है लेकिन सत्ता का उपयोग कर देश समाज को कोई दिशा देनी है ऐसा कभी सोचते ही नहीं । अर्थात हमारे पास सब कुछ हो सिर्फ खुद के लिए ऐसा संकीर्ण मानसिकता का समाज बन गया है । और ये इक राजनीति की बात नहीं है शिक्षा स्वास्थ्य धर्म से न्याय व्यवस्था सुरक्षा प्रणाली प्रशासन तक सभी ईमानदारी से कर्तव्य निभाना छोड़ मनमानी करने लगे हैं । विडंबना है कि बावजूद इस के सभी मानते हैं हम देश और समाज की सेवा करते हैं जबकि लूट का कारोबार करने में इक होड़ सी लगी है । कारोबार व्यौपार उद्योग से लेकर सिनेमा टीवी चैनल लेखन तक हर कोई सही राह से भटक गया है आईना बेचने लगे हैं दर्पण को देखते नहीं हैं । बारिश में जैसे मेंढक टरटराने लगते हैं हम सभी की आदत बन गई है रोज़ किसी बदले विषय पर बातचीत करते हैं । कोई गिनती नहीं रोज़ कुछ न कुछ नया होता है नव वर्ष से लेकर त्यौहार या खास अवसर ही नहीं महिला दिवस बाल दिवस स्वतंत्रता दिवस गणतंत्र दिवस से तमाम दिन निर्धारित हैं किस दिन हिंदी की बात करनी है कब संविधान को लेकर कुछ कहना है । बस उस दिन उस अवसर को छोड़ कभी किसी की चिंता करना अनावश्यक लगता है , सभाओं में भाषण भी इक सिमित परिधि में देते हैं सुनते हैं और अधिकांश औपचारिकता निभाते हैं कोई प्रभाव नहीं छोड़ते इस कदर खोखले हो गए हैं ।
कोई चित्रकार इक चित्रकारी करते हुए कितने रंगों का उपयोग करता है अपनी बात को अभिव्यक्त करने को अब लगता है तस्वीर खूबसूरत नहीं डरावनी लगती है । दोष तस्वीर का रंगों का नहीं है जो सामने दिखाई देता है उसी को दर्शाना होता है । आज इस रचना में भी बात निराशा की नहीं है अंधकार ही अंधकार है हर तरफ और कहीं कोई आशा की किरण नहीं दिखाई देती तो उस बेबसी का दर्द झलकता है शब्दों में सिर्फ कल्पना लोक में जीना संभव नहीं रचनाकार के लिए । मुझे जिस सुंदरता की चाहत है लाख कोशिश करने पर भी उसका कोई निशान कोई सिरा मिलता नहीं है तो महसूस होता है भटक गए हैं अब फिर से उसी जगह से नई शुरुआत करनी होगी जिस मोड़ से हमने राह बदल ली थी भटक गए हैं । वक़्त लौटता नहीं कभी भी तब भी सफ़र में जब समझ आये कि मंज़िल नहीं दिखाई दे रही तो सोच समझ कर इक मोड़ लेना ज़रूरी है । नहीं तो चलते चलते थक कर सोना हमेशा हमेशा के लिए नियति बन जाएगी । उलझी हुई तस्वीर है बिगड़ी हुई तकदीर है टूटी हुई शमशीर है शिकारी खुश निशाने पर है घायल हुआ हर तीर है ।
1 टिप्पणी:
👌👍....संकीर्ण मानसिकता....मेंढक तरतराने लगे👌👍... बढ़िया आलेख
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